पुस्तक समीक्षा - निषिद्ध देश में सवा बरस
~महापंडित राहुल सांकृत्यायन कृत
एक ऐसा व्यक्ति जो अपने ज्ञान की प्यास को मिटाने और स्वयं की खोज में आजीवन भटकता रहा दुनिया की छत तिब्बत के पठार से कुमारी अंतरीप के श्रीलंका तक, कभी विजयनगर साम्राज्य के प्रांत रंगून से सिल्क रूट और काकेशस पर्वत की उपत्यकाओं में, उगते सूरज का देश जापान से मास्को के युराल पर्वत के गिरिपाद प्रदेशों तक।
इतिहास और साहित्य हमेशा से ऋणी हैं घुमक्कड़ों के यात्रा वृतांत के,एक और जहां यात्रियों के राजकुमार कहे जाने वाले ह्वेनसांग ने अपने देश के लिए शुद्ध ज्ञान की तलाश में भारत से पांडुलिपियों की प्रतिलिपियां को अनथक प्रयास से संजोया। वही महापंडित राहुल सांकृत्यायन कुषाण और विदेशी आक्रमण के समय भारत से बाहर ले गई अमूल्य पांडुलिपियों को यथाशक्ति संजोकर भारत के वैचारिक पुनरुत्थान का अभिनव प्रयास किया। राहुल जी को भारत का ह्वेनसांग कहें या ह्वेनसांग को चीन का महापंडित दोनों ही बातें उतनी ही सत्य है।
इन दोनों ही घुमक्कड़ विभूतियों का मेरे जीवन में एक अलग ही स्थान है, यह सदैव से मेरे लिए पूज्य हैं। और आज राहुल सांकृत्यायन पर लिखते हुए मेरी कलम स्वयं को धन्य समझ रही है।
मेरे पड़ोसी जिले आजमगढ़ के पंदहा गांव में 9 अप्रैल 1893 में जन्मे केदारनाथ पांडे, अपने घुमक्कड़ी और ज्ञान के बदौलत महापंडित राहुल सांकृत्यायन के नाम से काशी के पंडितों द्वारा विभूषित किए गए। एक विलक्षण व्यक्तित्व के धनी बहुभाषाविद्, दार्शनिक, साहित्यकार, घुमक्कड़, कर्मयोगी, मनीषी, विचारक रहे राहुल संकृत्यायन तब ब्रिटिश शासन काल के पंक के समान वातावरण में पंकज की तरह उदित हुए और भारतीय जनमानस को कूपमंडूकता को उतार फेंक देने के लिए उत्साहित किया।
महापंडित त्रिपिटकाचार्य राहुल सांकृत्यायन जी ने 135 से अधिक पुस्तकें लिखी है, घुमक्कड़ी साहित्य के तो वह मुर्धन्य विद्वान रहे, इस विधा में राहुल जी के स्तर का लेखन अभी तक संभव नहीं हो पाया है।
आज जब सारा विश्व हमसे बस एक क्लिक भर की दूरी पर है, भारत वर्ष के ऐसे घुमक्कड़ भारत के नौजवानों के लिए और प्रासंगिक होते जा रहे हैं।
आज जब सर्वत्र पूंजीवाद का बोलबाला है और कट्टरवादी ताकतें अपनी जड़े गहरे जमा रही हैं, तब महापंडित की कलम से निकले उद्गार समाज, सभ्यता, इतिहास, धर्म, विज्ञान, संस्कृति, दर्शन में व्याप्त रूढ़ियों और अंधविश्वासों पर करारा कुठाराघात कर रहे हैं और जीवन की प्रगतिशीलता की ओर उन्मुख होने की शिक्षा दे रही हैं।
इतिहास और साहित्य हमेशा से ऋणी हैं घुमक्कड़ों के यात्रा वृतांत के,एक और जहां यात्रियों के राजकुमार कहे जाने वाले ह्वेनसांग ने अपने देश के लिए शुद्ध ज्ञान की तलाश में भारत से पांडुलिपियों की प्रतिलिपियां को अनथक प्रयास से संजोया। वही महापंडित राहुल सांकृत्यायन कुषाण और विदेशी आक्रमण के समय भारत से बाहर ले गई अमूल्य पांडुलिपियों को यथाशक्ति संजोकर भारत के वैचारिक पुनरुत्थान का अभिनव प्रयास किया। राहुल जी को भारत का ह्वेनसांग कहें या ह्वेनसांग को चीन का महापंडित दोनों ही बातें उतनी ही सत्य है।
इन दोनों ही घुमक्कड़ विभूतियों का मेरे जीवन में एक अलग ही स्थान है, यह सदैव से मेरे लिए पूज्य हैं। और आज राहुल सांकृत्यायन पर लिखते हुए मेरी कलम स्वयं को धन्य समझ रही है।
मेरे पड़ोसी जिले आजमगढ़ के पंदहा गांव में 9 अप्रैल 1893 में जन्मे केदारनाथ पांडे, अपने घुमक्कड़ी और ज्ञान के बदौलत महापंडित राहुल सांकृत्यायन के नाम से काशी के पंडितों द्वारा विभूषित किए गए। एक विलक्षण व्यक्तित्व के धनी बहुभाषाविद्, दार्शनिक, साहित्यकार, घुमक्कड़, कर्मयोगी, मनीषी, विचारक रहे राहुल संकृत्यायन तब ब्रिटिश शासन काल के पंक के समान वातावरण में पंकज की तरह उदित हुए और भारतीय जनमानस को कूपमंडूकता को उतार फेंक देने के लिए उत्साहित किया।
महापंडित त्रिपिटकाचार्य राहुल सांकृत्यायन जी ने 135 से अधिक पुस्तकें लिखी है, घुमक्कड़ी साहित्य के तो वह मुर्धन्य विद्वान रहे, इस विधा में राहुल जी के स्तर का लेखन अभी तक संभव नहीं हो पाया है।
आज जब सारा विश्व हमसे बस एक क्लिक भर की दूरी पर है, भारत वर्ष के ऐसे घुमक्कड़ भारत के नौजवानों के लिए और प्रासंगिक होते जा रहे हैं।
आज जब सर्वत्र पूंजीवाद का बोलबाला है और कट्टरवादी ताकतें अपनी जड़े गहरे जमा रही हैं, तब महापंडित की कलम से निकले उद्गार समाज, सभ्यता, इतिहास, धर्म, विज्ञान, संस्कृति, दर्शन में व्याप्त रूढ़ियों और अंधविश्वासों पर करारा कुठाराघात कर रहे हैं और जीवन की प्रगतिशीलता की ओर उन्मुख होने की शिक्षा दे रही हैं।
घुमक्कड़ो के भारतीय युवराज महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने अपना जीवन भ्रमण को समर्पित कर सार्थक कर लिया, उनकी दर्जनों यात्रा वर्णन की पुस्तकें उपलब्ध है जिनका आज भी कोई सानी नहीं इन्ही पुस्तकों में से एक है निषिद्ध देश तिब्बत में सवा बरस, इस यात्रा वर्णन की विषय वस्तु रही संसार की दुर्गम उच्च भूमि की यात्रा जिसने महापंडित को महान यात्री ह्वानसांग के समकक्ष ला खड़ा कर दिया जिसने असली बौद्ध साहित्य के लिए प्राणप्रण से प्रयत्नशी होकर अपने देश के लिए अमूल्य बौद्ध साहित्य और दर्शन का खजाना ले जा सका, वहीं कुषाण काल और विदेशी आक्रमणों के काल में ध्वंस हुए नालंदा, तेल्हडा, उदंतपुरी, सोमपुरा, विक्रमशिला आदी महाविहार विश्वविद्यालयों के छात्रों और विद्वानों द्वारा आदी ग्रंथों को दुर्गम प्रदेशों के मठो और आश्रमों में ले जाकर गुप्त कर दिया गया। महापंडित के अथक प्रयासों से यह सभी दुर्लभ साहित्य रत्न वापस अपने मूल देश लाए जा सके, जहाँ के लोग अब इन ग्रंथों के नाम तक भूल चुके थे।
बोधिचर्यावतार, सुद्धर्मपुंड़रीक, अमरकोष, ललितविसार, प्रज्ञापारमिता, स्त्रग्धरास्त्रोत, व्युत्पत्ति अष्टासहस्त्रिका, करूणा पुंडरीक आदी सैकड़ों ग्रंथ और देवदुर्लभ ताड़पत्र लेख आज भारत वर्ष में उपलब्ध है तो यह मात्र राहुल सांकृत्यायन जी के भागीरथ प्रयासों की ही देन है।
यह पुस्तक उसी दुर्गम और रोमांचक तिब्बत यात्रा का वृहद वर्णन करती है, जिसमें राहुल सांकृत्यायन श्रीलंका के बौद्ध संगठनों, भारतीय संस्थाओं और व्यक्तिगत सहयोग से इस यात्रा पर लंका से निकलते है।
विभिन्न भारतीय प्रदेशों से गुजरते तथा नेपाल को पार कर लामाओं के दल के साथ भेष बदल कर तिब्बत में दाखिल होते है, जहाँ पहचान हो जाने पर जान तथा कारगार का खतरा कदम-2 पर झेलते है, आखिरकार तिब्बत की राजधानी ल्हासा पहुँच कर धार्मिक, दर्शन, प्राचीन लेख, ताड़पत्र अभिलेख और अनेक दुर्लभ चित्रपटो का संग्रह कर वापस भारत और फिर श्रीलंका तक की यात्रा वृत को पुरा किया।
पुस्तक के प्रमुख 10 अध्याय है, जिनका तथोचित वर्णन हम आगे देखेंगे।
पहला अध्याय महापंडित के यात्रा इंतजाम, लंका से प्रस्थान, भारत के विभिन्न ऐतिहासिक जगहों का भ्रमण करते हुए नेपाल देश की सीमा तक पहुँचने का वर्णन करता है।
दुसरा अध्याय में नेपाल प्रवेश, काठमांडू दर्शन, तिब्बती लामा डुम्पा लामा के दल में प्रवेश करने और उनके साथ छिपकर तिब्बत जाने की योजना का वर्णन है।
तीसरा अध्याय छुपते छिपाते राहदारी और कस्टम अधिकारीओं से बचते तिब्बत में प्रवेश कर टशी गड़् - लड़्कोर होते शे कर गोम्बा तक की यात्रा के बारे में है।
चौथे अध्याय में शीगर्ची और ग्यांची होते हुए ल्हासा पहुँचने तक का वृहद वर्णन किया गया है।
पांचवे अध्याय में तिब्बत की राजधानी ल्हासा के प्रशासनिक स्थानिक, सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक, धार्मिक आदी सभी पहलुओं का नख सिख वर्णन।
छठवां अध्याय भोट संस्कृति की पहचान विभिन्न ग्रंथो का संकलन, अनेक मठो और गोम्पाओ की पुस्तकों की खोज यात्रा का वर्णन किया गया है।
सातवाँ अध्याय राजनैतिक उथल पुथल, दलाई लामा के दर्शन, भोटिया साहित्य, चित्रपट और शिल्प को समर्पित है।
आठवाँ अध्याय महापंडित द्वारा अनेक ग्रंथो की प्राप्ति के लिए सुदूर सम वे गोम्पा तक की दुर्गम यात्रा, ब्रह्मपुत्र नदी में यात्रा और वापस ल्हासा लौटने के बारे में जानकारी देता है।
नवाँ अध्याय बौद्ध संत शांतिरक्षित की अस्थियों के दर्शन, स्तन्यगुर छापाखाने में मुद्रण, आर्थिक संकट, अनेक ग्रंथो की प्रतिलिपि बनाने, शीगर्ची-ग्यांची होकर वापसी की राह का चित्रण करता है।
दसवाँ और अंतिम अध्याय महापंडित राहुल सांकृत्यायन जी द्वारा भोट राज्य में प्रवेश, विवाह संस्था और अन्य सांस्कृतिक जानकारियों के साथ सिक्किम से गुजरते हुए, सैकड़ों ग्रंथों और अन्य वस्तुओं के साथ अंग्रेज शासित भारत में प्रवेश, विभिन्न पुस्तकों को पटना, प्रयाग और काशी विश्वविद्यालय में दान के बाद बौद्ध साहित्य के साथ लंका प्रस्थान और यात्रा समाप्ति का वर्णन करता है।
यायावर रत्न राहुल सांकृत्यायन के शब्दों से सजी यह पुस्तक भारत के राजगीर-नालंदा- कुशीनगर-वैशाली-लुंबिनी आदी विभिन्न पुरातात्विक जगहों के आदी इतिहास और वर्तमान को साथ लेकर जो परादृश्य खिंचती है वह आज भी वैसा का वैसा ही उन स्थानों पर दिखाई देता है। नेपाल देश का वर्णन यथोचित और वर्तमान के सदृश्य ही प्रतीत होता है, जैसे कल ही की बात हो.. पुरे विश्व में अभी भी सबसे दुर्गम और अज्ञात तिब्बत के विभिन्न क्षेत्रों उनमें निवास करने वालें विभिन्न संप्रदायों के भाषा-बोली, रहन-सहन, खान-पान, गुण-दोषों का सुक्ष्म से सुक्ष्म वर्णन के बाद सशरीर वहाँ उपस्थित होने का आभास पाठक को स्वयंमेव ही होने लगता है, इसलिए यह पुस्तक अवश्य ही पठनीय है।
विशिष्ट स्थानों पर कर्मकांडो और धार्मिक अंधविश्वासो का बेबाकी से प्रगटीकरण भी किया है, भारत के विभिन्न क्षेत्रों के लोगों के भूल स्थान के संबंध में भी जानकारी दी गई है। भोट प्रदेश में प्रचलित विभिन्न परंपराओं, बहुपति - बहुपत्नीक व्यस्थाओं, का रोचक वर्णन के साथ-साथ मेरे प्रिय विषय खाने पीने की अनेको आदतें और व्यवहार की जानकारी भी उपस्थित है। मेरे सबसे प्रिय तिब्बती व्यंजन थुक्पा का विषद वर्णन पढ़ने को मिला, यह पुस्तक मेरे द्वारा पढ़ी गई कुछ बेहतरीन किताबों में से एक है। मैं स्वयं को सौभाग्यशाली मानता हूँ की मुझे यह पुस्तक प्राप्त हुई और मैंने इसका रसास्वादन किया, मैं यह पुरे विश्वास के साथ कह सकता हूँ की सभी घुमक्कड़ मित्रों, लोक संस्कृति के जानकारों और यात्रा लेख के पाठकों यह पुस्तक अवश्य ही पढ़नी चाहिए।
बोधिचर्यावतार, सुद्धर्मपुंड़रीक, अमरकोष, ललितविसार, प्रज्ञापारमिता, स्त्रग्धरास्त्रोत, व्युत्पत्ति अष्टासहस्त्रिका, करूणा पुंडरीक आदी सैकड़ों ग्रंथ और देवदुर्लभ ताड़पत्र लेख आज भारत वर्ष में उपलब्ध है तो यह मात्र राहुल सांकृत्यायन जी के भागीरथ प्रयासों की ही देन है।
यह पुस्तक उसी दुर्गम और रोमांचक तिब्बत यात्रा का वृहद वर्णन करती है, जिसमें राहुल सांकृत्यायन श्रीलंका के बौद्ध संगठनों, भारतीय संस्थाओं और व्यक्तिगत सहयोग से इस यात्रा पर लंका से निकलते है।
विभिन्न भारतीय प्रदेशों से गुजरते तथा नेपाल को पार कर लामाओं के दल के साथ भेष बदल कर तिब्बत में दाखिल होते है, जहाँ पहचान हो जाने पर जान तथा कारगार का खतरा कदम-2 पर झेलते है, आखिरकार तिब्बत की राजधानी ल्हासा पहुँच कर धार्मिक, दर्शन, प्राचीन लेख, ताड़पत्र अभिलेख और अनेक दुर्लभ चित्रपटो का संग्रह कर वापस भारत और फिर श्रीलंका तक की यात्रा वृत को पुरा किया।
पुस्तक के प्रमुख 10 अध्याय है, जिनका तथोचित वर्णन हम आगे देखेंगे।
पहला अध्याय महापंडित के यात्रा इंतजाम, लंका से प्रस्थान, भारत के विभिन्न ऐतिहासिक जगहों का भ्रमण करते हुए नेपाल देश की सीमा तक पहुँचने का वर्णन करता है।
दुसरा अध्याय में नेपाल प्रवेश, काठमांडू दर्शन, तिब्बती लामा डुम्पा लामा के दल में प्रवेश करने और उनके साथ छिपकर तिब्बत जाने की योजना का वर्णन है।
तीसरा अध्याय छुपते छिपाते राहदारी और कस्टम अधिकारीओं से बचते तिब्बत में प्रवेश कर टशी गड़् - लड़्कोर होते शे कर गोम्बा तक की यात्रा के बारे में है।
चौथे अध्याय में शीगर्ची और ग्यांची होते हुए ल्हासा पहुँचने तक का वृहद वर्णन किया गया है।
पांचवे अध्याय में तिब्बत की राजधानी ल्हासा के प्रशासनिक स्थानिक, सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक, धार्मिक आदी सभी पहलुओं का नख सिख वर्णन।
छठवां अध्याय भोट संस्कृति की पहचान विभिन्न ग्रंथो का संकलन, अनेक मठो और गोम्पाओ की पुस्तकों की खोज यात्रा का वर्णन किया गया है।
सातवाँ अध्याय राजनैतिक उथल पुथल, दलाई लामा के दर्शन, भोटिया साहित्य, चित्रपट और शिल्प को समर्पित है।
आठवाँ अध्याय महापंडित द्वारा अनेक ग्रंथो की प्राप्ति के लिए सुदूर सम वे गोम्पा तक की दुर्गम यात्रा, ब्रह्मपुत्र नदी में यात्रा और वापस ल्हासा लौटने के बारे में जानकारी देता है।
नवाँ अध्याय बौद्ध संत शांतिरक्षित की अस्थियों के दर्शन, स्तन्यगुर छापाखाने में मुद्रण, आर्थिक संकट, अनेक ग्रंथो की प्रतिलिपि बनाने, शीगर्ची-ग्यांची होकर वापसी की राह का चित्रण करता है।
दसवाँ और अंतिम अध्याय महापंडित राहुल सांकृत्यायन जी द्वारा भोट राज्य में प्रवेश, विवाह संस्था और अन्य सांस्कृतिक जानकारियों के साथ सिक्किम से गुजरते हुए, सैकड़ों ग्रंथों और अन्य वस्तुओं के साथ अंग्रेज शासित भारत में प्रवेश, विभिन्न पुस्तकों को पटना, प्रयाग और काशी विश्वविद्यालय में दान के बाद बौद्ध साहित्य के साथ लंका प्रस्थान और यात्रा समाप्ति का वर्णन करता है।
यायावर रत्न राहुल सांकृत्यायन के शब्दों से सजी यह पुस्तक भारत के राजगीर-नालंदा- कुशीनगर-वैशाली-लुंबिनी आदी विभिन्न पुरातात्विक जगहों के आदी इतिहास और वर्तमान को साथ लेकर जो परादृश्य खिंचती है वह आज भी वैसा का वैसा ही उन स्थानों पर दिखाई देता है। नेपाल देश का वर्णन यथोचित और वर्तमान के सदृश्य ही प्रतीत होता है, जैसे कल ही की बात हो.. पुरे विश्व में अभी भी सबसे दुर्गम और अज्ञात तिब्बत के विभिन्न क्षेत्रों उनमें निवास करने वालें विभिन्न संप्रदायों के भाषा-बोली, रहन-सहन, खान-पान, गुण-दोषों का सुक्ष्म से सुक्ष्म वर्णन के बाद सशरीर वहाँ उपस्थित होने का आभास पाठक को स्वयंमेव ही होने लगता है, इसलिए यह पुस्तक अवश्य ही पठनीय है।
विशिष्ट स्थानों पर कर्मकांडो और धार्मिक अंधविश्वासो का बेबाकी से प्रगटीकरण भी किया है, भारत के विभिन्न क्षेत्रों के लोगों के भूल स्थान के संबंध में भी जानकारी दी गई है। भोट प्रदेश में प्रचलित विभिन्न परंपराओं, बहुपति - बहुपत्नीक व्यस्थाओं, का रोचक वर्णन के साथ-साथ मेरे प्रिय विषय खाने पीने की अनेको आदतें और व्यवहार की जानकारी भी उपस्थित है। मेरे सबसे प्रिय तिब्बती व्यंजन थुक्पा का विषद वर्णन पढ़ने को मिला, यह पुस्तक मेरे द्वारा पढ़ी गई कुछ बेहतरीन किताबों में से एक है। मैं स्वयं को सौभाग्यशाली मानता हूँ की मुझे यह पुस्तक प्राप्त हुई और मैंने इसका रसास्वादन किया, मैं यह पुरे विश्वास के साथ कह सकता हूँ की सभी घुमक्कड़ मित्रों, लोक संस्कृति के जानकारों और यात्रा लेख के पाठकों यह पुस्तक अवश्य ही पढ़नी चाहिए।
इस पुस्तक में लामाओं का लोभ, लेखक का भेष बदल कर यात्रा करना, बौद्ध मत ब्रजयान-हीनयान अंधविश्वास और कर्मकांडो के जाल, तिब्बत-भोट प्रदेशों के लोगों का स्नान ना करना, मोटे खतरनाक भोटिया कुत्तों, भोट प्रदेश के अमीर जागीरदारों की जीवन शैली, विभिन्न समाज के लोग और उनके आपसी व्यापारिक-व्यावहारिक संबंधों का वर्णन, लेखक द्वारा ब्रह्मपुत्र नदी में चमड़े की नदी में सैर, सुंदर भोट कन्याओं का शृंगार वर्णन और उनके द्वारा जुएँ खाने का वर्णन, भारत भूमि से तिब्बत जैसे पर्वतीय और असह्य प्रदेशों में जाकर बौद्ध धर्म का प्रादुर्भाव करने वाले आचार्य शांतिरक्षित के अस्थि अवशेषों का मिलना, ल्हासा में सभी अधिकारियों का भिक्षु और गृहस्थ दोनों के जोड़े में होना, प्रत्येक साल 24 दिनों के लिए भिक्षु शासन का लागु होना, दलाई लामा के शासन प्रबंध, लेखक महापंडित पर अंग्रेजी गुप्तचरों की नजर आदी प्रसंग निश्चय ही बहुत रोचक है, जिनका आनंद इस पुस्तक के पाठन के दौरान विस्तार से लिया जा सकता है।
निः संदेह यह किताब बाल-युवा-वृद्ध सभी के लिए पठनीय है, पुस्तक का प्रकाशन 1990 और लेखन 1938 में किया गया है इसलिए कुछ स्थानों के नाम और वर्तनी में प्राचीन प्रभाव दृष्टीगोचर है। फिलहाल अभी-2 इसी समय तिब्बती थुक्पा का आनंद लेते हुए और यह पुस्तक परिचय लिखते हुए ऐसा लगता है जैसे ल्हासा की तंग गलियाँ सामने ही तो है, आप भी दर्शन कर लिजिए ना..
*संदेश*
आज जबकि भौतिक विकास की बलिवेदी पर व्यक्ति और समाज की रचनात्मक जिज्ञासाओं की भेंट समाज विज्ञान के विषयों की पढ़ाई बन्द कर चढ़ाई जा रही है तो स्वाभाविक है कि नई पीढ़ी राहुल सांकृत्यायन के नाम से भी अपरिचित बनी हुई है लेकिन वितंडावाद के अन्तर्गत दी जाने वाली शरारतपूर्ण जानकारियों से बौद्धिक क्षितिज पर छाये प्रदूषण के चलते जिस तरह की संकीर्णता और असहिष्णुता का प्रसार देश में हो रहा है और उससे सामाजिक व राष्ट्रीय एकता के लिये नये तरह के खतरे उत्पन्न होते जा रहे हैं। उनके संदर्भ में राहुल के बारे में नई पीढ़ी का ध्यान खींचना आज अत्यन्त आवश्यक हो गया है। राहुल की चिंतन धारा में तथागत बुद्ध की सम्यक चिंतन और सम्यक समाधि के अष्टांगिक मार्ग का समावेश है। इसका अनुशीलन करके ही वैज्ञानिक दृष्टि हासिल होना संभव है। जो षड्यन्त्रपूर्ण वितंडावाद से मुक्त कर नई पीढ़ी को अप्पो दीपोभव की ओर अग्रसर करने में सहायक होगा।
इति शुभम्
अनुराग चतुर्वेदी ⚘
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