अग्नि प्रचोदयात - बसंत की प्रतीक्षा 🔥🎋🌞
यदी आप फर्ज करें तो मेरे साथ-2 थोड़ा टाइम मशीन में पीछे चले चलते है।
वक्षु घाटी को छोड़ पामीर और हिंदूकुश को लांघ कर नमक की पहाड़ियों के रास्ते एक बड़ा कबीला श्रांत्र धीरे-2 चला आ रहा था, अपने गोधन को हांकते हुए एक विचित्र पशु जिसके खुर फटे हुए ना थे जिसे वह घोटक पुकारते थे, स्वात और काबुल नदी के किनारे-2 सप्त सैंधव क्षेत्र की ओर बढ़ते आ रहे है।
सुवास्त का बाँया तट, कहीं-2 दिखती हरियाली, भयंकर शीत में ठूँठ से बने वृक्ष, दूर कहीं कोई धीरे बहता सा झरना और उसके आस पास दिखता चटख हरा रंग, कुछ हरे पश्मीना के कंबल ओढे नये गोधुम के खेत और उनके उपर जरी के काम सा दिखाई देती है ओस की बुँदे, बर्फो से निकल सुवास्त नदी कलकल बहती जा रही है। इन घुम्मकड़ आर्यो को अभिमान है अपने इन पत्थरों और देवदारू के डंठलों से बने अपने घरों पर जिनकी दीवारे फूस की बनी है और जिनपर लाल-पीली मिट्टी की पुताई कर बेल-बुंटे उकेरे हुए है जो प्रमाणित करते है जन की किसी नवललना की कलात्मक अभिरूची को.. इसी देवलोक को वह स्वात बुलाते है मतलब सुंदर घरों वाला देश।
विचित्र वेशभूषा को धारण किए उनी कंचुक, उष्णीण और उत्तरीय रूपी चादर जिसे एक कंधे के उपर बांधा गया है और अनगिनत तालियों से निर्मित पादत्राण सर पर मदार्घ चर्म की कंटोप और सुदंर लंबे पिंगल केश।
क्रर्मु,कुभा,वितस्ता,विपाशा,दृष्टावती,अश्किनी,पुरूष्णी, शतुद्री आदी नदियों के किनारे असुरों के अनेक लौह अयोध्या नगरी बसी हुई थी। इन असुरो का मुख्यतः पेशा अवनि को खंचित कर अन्नोत्पादन का था। जो स्वयं को आर्य कहने वाले आगंतुको के लिए सर्वथा पापकर्म ही था। जिनका मुख्यतः आहार रक्तवर्ण द्राक्षासुरा,लवण में पाक गोवत्स मांस पिंड और विभिन्न फल थे। रात्रि में नृत्य अखाडो में नृत्य-गान और पान गोष्ठी का आयोजन होता।
असुर कृषि करते, व्यापार करते और कार्पास के वस्त्र धारण करते थे। असुरो के दुर्ग का इंद्र ने ध्वंस कर पुरंदर की उपाधि ली और धीरे-2 कबीलो से प्रारंभिक ग्राम की स्थापना हो रही थी।
कालांतर में आर्य और असुर संस्कृति अब मिश्रित होने लगी थी और अब कृषि सभी की मुख्य आजीविका बन गयी। दिन भर की चर्या से क्लांत मानव मानस विश्राम के क्षणों में जातवेद के गिर्द सुरा और नृत्य का उत्सव प्राचीन काल से चली आ रही सामुहिकता और सामुदायिक परंपरा को नये रंग दे रहा था।
एक सम्मिलित समाज का यह उत्सव शायद फसल उत्सव के आरंभिक चिह्न थे। किसे मालूम था की 3000 साल आगे चल के भी विभिन्न रूप में आज भी उस संस्कृति की यादें सांस लेती दिखाई देती है।
हाँ, यह उन दिनों की आदत है, जब सारा जन एक साथ एक घर में रहता था। किसी की अपनी को कोई व्यक्तिगत संपत्ति, स्त्री, बालक और ना ही नाम होता था। यह उन दिनों की भी याद है जब अभी स्त्री पुरूषों की जंगम संपत्ति नहीं बन पाई थी। वह उतनी स्वतंत्र थी जितना कोई अन्य.. सभी जनो का नाम माताओं से संबोधित थे और पहचान माता का कुलगोत्र. पिता की पहचान भला थी भी किसे..समस्त जन ही पालनहार था, पिता था।
अभी इनमें उन दिनों की स्मृतियाँ शेष है जब इनका निवास अमूदरिया और सीरदरिया की घाटी में हुआ करता था। इन्होंने अनेक भीषण शीतवर्ष वहीं गुजारे थे। शीत अब भी उन्हे भयाक्रांत कर देता है अभी उनमें हिमतेंदूओं और बर्फिले इलाके के दुर्धुर्ष भेडिओं के भयानक किस्से की यादें है। जब इन्होंने अनेक दुर्गम दर्रो और उछलती जीवन लीलने वाली नदियों को पार कर यहाँ इस शांत घाटी में आए सभी कुछ स्मृतियों में परत दर परत दर्ज है।
कुछ अनुभवी बुजुर्ग जानते है की इन्ही दिनों से शीत का प्रकोप किसी कारण से कम होने लगता है, यह किसी दुःस्वपन की समाप्ति की तरह है। इस संबंध में रोज की पान गोष्ठी से अतिरिक्त एक विशेष आयोजन की तैयारियाँ है, जब सभी धुमधाम से शीत को विदा करते है और बसंत की राह देखना प्रारंभ करते है।
यहाँ इस घाटी में मधु की अधिकता पर मधुभक्षी रीक्षों का नया खतरा भी बढ़ गया है। इन इंसानों को भी मधु प्रिय है मिठास और सोम पेय दोनों के लिए, कभी-2 मधु संघर्ष चलता है इंसानो और रीक्षों के बीच। आज गोल जन निवास में जानवर की खाल चढ़ाकर बनाये गई गोल बाजे के पीटने की ध्वनि आ रही है। समस्त जन उत्सव के लिए एकत्रित है, सभी यथाशक्ति सुसज्जित भी है। कुछ संगीत भी फूटता है किसी कोकिल स्त्री के सुरीले कंठो से, साथ ही उसके किसी साथी की मोटी कर्कश आवाज भी साथ है। धुन और लय पर पांव थिरकने को बाध्य करते है पर अभी उत्सव का आगाज नहीं हुआ बहुत से लोग अभी एकत्रित हो रहे है। छोटे बच्चे मारे उत्साह से भूमि में लोटकर किलोल कर रहे है।
इंतजार है तो जन नायिका और समानित वृद्धो की समिति की, प्रतिक्षा की घड़ीयाँ लंबी नहीं है। जन नायिका सभा मंडप में प्रवेश करती है सभी उठ खड़े होते है। होत्रृ कुछ अस्पष्ट मंत्र का पाठ करते है, जो उन्होंने सहेज रखे है अपने पुराने से पुरापे दिनों की स्मृति स्वरूप। सभा मंडप की छत बीच से खुली है और नीचे देवदार के लठ्ठो की एक बड़ी आग जल रही है। मंत्रों और गीतों में अग्नि की प्रशंसा की जा रही है। उसे शीत से जन की रक्षा के लिए धन्यवाद दिया जा रहा है। अग्नि की आराधना हो रही है वहीं पुज्य है।
जन नायिका और समिति के सदस्य प्रथम मधु चषक का एक प्याला अग्नि को समर्पित करते है सभी कंठो से मुक्त स्वर उठता है स्वाहा..!! सभी अग्नि में मधु, माँस, चर्बी, घी, फल और अन्न की भेंट देकर अपनी कृतज्ञता व्यक्त करते है। इस शीत में भी फल अन्न की उपलब्धता रही, यथेष्ट शिकार मिल पाए, जन के सदस्यों की शीत और वन्यपशुओं से हानि कम हुई थी। सभी प्रार्थना करते है की बसंत जल्द आए, उनके गोधूम के खेतों में प्रयाप्त अन्न उत्पन्न हो, शिकार खूब मिले, नये चारागाहों और मृगया क्षेत्रों पर अधिकार हो.. गोधन दुग्ध की वर्षा करें, सुढौल वृषभ कृषि और मांस के लिए भरपुर प्राप्त ही.. सभी पशु निरोग रहे.. प्रार्थना समाप्त होती है और नगाड़े पुनः बज उठते है।
कोमल कंठ पुनः गीतों को स्वर देती है और कर्कश स्वर उन्हे आवलंबन देते है। जन नायिका वेदी से उठकर रंगशाला में आती है, समस्त जन अग्नि की गिर्द एकत्र है। मधुर सोम के बड़े-बड़े मृदभांड पर मृदभांड आ रहे है। किसी के पास चषक काष्ठ के है, किसी के पास धातु के किसी के पास दारूवृक्ष के पत्तों का, कोई सम्मानित योद्धा पिछले युद्ध के अपने किसी शत्रु की खोपड़ी में सोमपान कर रहा है। नृत्य-गान निरंतर चलता है, सभी अलग-2 झुंडो और दलो में विभक्त होकर सोमपान कर रहे है। यद्यपि की तरूण, प्रौढ़ और वृद्धों के अलग समूह है पर कोई नियम नहीं है कोई तरूणी किसी वृद्ध के अंक में उसे जीवन सुधा की कुछ अमृतमयी बुँदे पिला रही है। तो कोई प्रौढ़ा किसी नवयुवक को अपने मोहपाश में बांध रही है।
सभी मत है, शीत का यह उत्सव चरम पर है। जन नायिका आज एक नवयुवक ऋत के साथ नृत्य कर रही है, कल उसका कृपापात्र प्रौढ़ पर दृढ़ अमृत था। सभी युगल स्वतंत्र और स्वच्छंद इसी रंगशाला में रात्रिभर खान-पान-गान-नृत्य और अंक-शयन करेंगे। प्रातः कोई उठकर पशुओं को संभालेंगा कोई जन निवास का प्रबंध करेगा, कुछ अन्न और फल की खोज में जाएँगे, कुछ शिकार के लिए जंगलों में जाएँगे। कोमल लाल गालों वाले इनके बच्चे कुछ अपनी माता के पास तो कुछ स्वात की उपत्यका में खेल करेंगे।
किसी को इसकी खबर नहीं की इन गहरी जमी जड़ों की स्मृतियाँ सैकड़ों-हजारों वर्षों बाद स्वरूप बदल कर भी यथावत रहेंगी, उनके अपने वंशज इसे चिरजीवित रखेंगे अपनी नयी धरती आर्यावर्त में..अब धीरे-2 अतीत के तिमिर से वर्तमान के प्रकाश की ओर आइए.. अपने पुर्वजों के उन्ही मंत्र वाक्यों को दुहराते हुए गंगा के शीत जल में स्वयं को पावन करते हुए हमारे साथ बुदबुदाइए " असतो मा सद्गमय तमसो मा ज्योर्तियगमयः मृत्योर्मा अमृत गमयः"
आपको लोहड़ी, संक्रांति पर्व की शुभकामनाएँ और बैसाखी बसंतोत्सव की प्रतीक्षा..
इति शुभम्
अनुराग चतुर्वेदी ⚘
यदी आप फर्ज करें तो मेरे साथ-2 थोड़ा टाइम मशीन में पीछे चले चलते है।
वक्षु घाटी को छोड़ पामीर और हिंदूकुश को लांघ कर नमक की पहाड़ियों के रास्ते एक बड़ा कबीला श्रांत्र धीरे-2 चला आ रहा था, अपने गोधन को हांकते हुए एक विचित्र पशु जिसके खुर फटे हुए ना थे जिसे वह घोटक पुकारते थे, स्वात और काबुल नदी के किनारे-2 सप्त सैंधव क्षेत्र की ओर बढ़ते आ रहे है।
सुवास्त का बाँया तट, कहीं-2 दिखती हरियाली, भयंकर शीत में ठूँठ से बने वृक्ष, दूर कहीं कोई धीरे बहता सा झरना और उसके आस पास दिखता चटख हरा रंग, कुछ हरे पश्मीना के कंबल ओढे नये गोधुम के खेत और उनके उपर जरी के काम सा दिखाई देती है ओस की बुँदे, बर्फो से निकल सुवास्त नदी कलकल बहती जा रही है। इन घुम्मकड़ आर्यो को अभिमान है अपने इन पत्थरों और देवदारू के डंठलों से बने अपने घरों पर जिनकी दीवारे फूस की बनी है और जिनपर लाल-पीली मिट्टी की पुताई कर बेल-बुंटे उकेरे हुए है जो प्रमाणित करते है जन की किसी नवललना की कलात्मक अभिरूची को.. इसी देवलोक को वह स्वात बुलाते है मतलब सुंदर घरों वाला देश।
विचित्र वेशभूषा को धारण किए उनी कंचुक, उष्णीण और उत्तरीय रूपी चादर जिसे एक कंधे के उपर बांधा गया है और अनगिनत तालियों से निर्मित पादत्राण सर पर मदार्घ चर्म की कंटोप और सुदंर लंबे पिंगल केश।
क्रर्मु,कुभा,वितस्ता,विपाशा,दृष्टावती,अश्किनी,पुरूष्णी, शतुद्री आदी नदियों के किनारे असुरों के अनेक लौह अयोध्या नगरी बसी हुई थी। इन असुरो का मुख्यतः पेशा अवनि को खंचित कर अन्नोत्पादन का था। जो स्वयं को आर्य कहने वाले आगंतुको के लिए सर्वथा पापकर्म ही था। जिनका मुख्यतः आहार रक्तवर्ण द्राक्षासुरा,लवण में पाक गोवत्स मांस पिंड और विभिन्न फल थे। रात्रि में नृत्य अखाडो में नृत्य-गान और पान गोष्ठी का आयोजन होता।
असुर कृषि करते, व्यापार करते और कार्पास के वस्त्र धारण करते थे। असुरो के दुर्ग का इंद्र ने ध्वंस कर पुरंदर की उपाधि ली और धीरे-2 कबीलो से प्रारंभिक ग्राम की स्थापना हो रही थी।
कालांतर में आर्य और असुर संस्कृति अब मिश्रित होने लगी थी और अब कृषि सभी की मुख्य आजीविका बन गयी। दिन भर की चर्या से क्लांत मानव मानस विश्राम के क्षणों में जातवेद के गिर्द सुरा और नृत्य का उत्सव प्राचीन काल से चली आ रही सामुहिकता और सामुदायिक परंपरा को नये रंग दे रहा था।
एक सम्मिलित समाज का यह उत्सव शायद फसल उत्सव के आरंभिक चिह्न थे। किसे मालूम था की 3000 साल आगे चल के भी विभिन्न रूप में आज भी उस संस्कृति की यादें सांस लेती दिखाई देती है।
हाँ, यह उन दिनों की आदत है, जब सारा जन एक साथ एक घर में रहता था। किसी की अपनी को कोई व्यक्तिगत संपत्ति, स्त्री, बालक और ना ही नाम होता था। यह उन दिनों की भी याद है जब अभी स्त्री पुरूषों की जंगम संपत्ति नहीं बन पाई थी। वह उतनी स्वतंत्र थी जितना कोई अन्य.. सभी जनो का नाम माताओं से संबोधित थे और पहचान माता का कुलगोत्र. पिता की पहचान भला थी भी किसे..समस्त जन ही पालनहार था, पिता था।
अभी इनमें उन दिनों की स्मृतियाँ शेष है जब इनका निवास अमूदरिया और सीरदरिया की घाटी में हुआ करता था। इन्होंने अनेक भीषण शीतवर्ष वहीं गुजारे थे। शीत अब भी उन्हे भयाक्रांत कर देता है अभी उनमें हिमतेंदूओं और बर्फिले इलाके के दुर्धुर्ष भेडिओं के भयानक किस्से की यादें है। जब इन्होंने अनेक दुर्गम दर्रो और उछलती जीवन लीलने वाली नदियों को पार कर यहाँ इस शांत घाटी में आए सभी कुछ स्मृतियों में परत दर परत दर्ज है।
कुछ अनुभवी बुजुर्ग जानते है की इन्ही दिनों से शीत का प्रकोप किसी कारण से कम होने लगता है, यह किसी दुःस्वपन की समाप्ति की तरह है। इस संबंध में रोज की पान गोष्ठी से अतिरिक्त एक विशेष आयोजन की तैयारियाँ है, जब सभी धुमधाम से शीत को विदा करते है और बसंत की राह देखना प्रारंभ करते है।
यहाँ इस घाटी में मधु की अधिकता पर मधुभक्षी रीक्षों का नया खतरा भी बढ़ गया है। इन इंसानों को भी मधु प्रिय है मिठास और सोम पेय दोनों के लिए, कभी-2 मधु संघर्ष चलता है इंसानो और रीक्षों के बीच। आज गोल जन निवास में जानवर की खाल चढ़ाकर बनाये गई गोल बाजे के पीटने की ध्वनि आ रही है। समस्त जन उत्सव के लिए एकत्रित है, सभी यथाशक्ति सुसज्जित भी है। कुछ संगीत भी फूटता है किसी कोकिल स्त्री के सुरीले कंठो से, साथ ही उसके किसी साथी की मोटी कर्कश आवाज भी साथ है। धुन और लय पर पांव थिरकने को बाध्य करते है पर अभी उत्सव का आगाज नहीं हुआ बहुत से लोग अभी एकत्रित हो रहे है। छोटे बच्चे मारे उत्साह से भूमि में लोटकर किलोल कर रहे है।
इंतजार है तो जन नायिका और समानित वृद्धो की समिति की, प्रतिक्षा की घड़ीयाँ लंबी नहीं है। जन नायिका सभा मंडप में प्रवेश करती है सभी उठ खड़े होते है। होत्रृ कुछ अस्पष्ट मंत्र का पाठ करते है, जो उन्होंने सहेज रखे है अपने पुराने से पुरापे दिनों की स्मृति स्वरूप। सभा मंडप की छत बीच से खुली है और नीचे देवदार के लठ्ठो की एक बड़ी आग जल रही है। मंत्रों और गीतों में अग्नि की प्रशंसा की जा रही है। उसे शीत से जन की रक्षा के लिए धन्यवाद दिया जा रहा है। अग्नि की आराधना हो रही है वहीं पुज्य है।
जन नायिका और समिति के सदस्य प्रथम मधु चषक का एक प्याला अग्नि को समर्पित करते है सभी कंठो से मुक्त स्वर उठता है स्वाहा..!! सभी अग्नि में मधु, माँस, चर्बी, घी, फल और अन्न की भेंट देकर अपनी कृतज्ञता व्यक्त करते है। इस शीत में भी फल अन्न की उपलब्धता रही, यथेष्ट शिकार मिल पाए, जन के सदस्यों की शीत और वन्यपशुओं से हानि कम हुई थी। सभी प्रार्थना करते है की बसंत जल्द आए, उनके गोधूम के खेतों में प्रयाप्त अन्न उत्पन्न हो, शिकार खूब मिले, नये चारागाहों और मृगया क्षेत्रों पर अधिकार हो.. गोधन दुग्ध की वर्षा करें, सुढौल वृषभ कृषि और मांस के लिए भरपुर प्राप्त ही.. सभी पशु निरोग रहे.. प्रार्थना समाप्त होती है और नगाड़े पुनः बज उठते है।
कोमल कंठ पुनः गीतों को स्वर देती है और कर्कश स्वर उन्हे आवलंबन देते है। जन नायिका वेदी से उठकर रंगशाला में आती है, समस्त जन अग्नि की गिर्द एकत्र है। मधुर सोम के बड़े-बड़े मृदभांड पर मृदभांड आ रहे है। किसी के पास चषक काष्ठ के है, किसी के पास धातु के किसी के पास दारूवृक्ष के पत्तों का, कोई सम्मानित योद्धा पिछले युद्ध के अपने किसी शत्रु की खोपड़ी में सोमपान कर रहा है। नृत्य-गान निरंतर चलता है, सभी अलग-2 झुंडो और दलो में विभक्त होकर सोमपान कर रहे है। यद्यपि की तरूण, प्रौढ़ और वृद्धों के अलग समूह है पर कोई नियम नहीं है कोई तरूणी किसी वृद्ध के अंक में उसे जीवन सुधा की कुछ अमृतमयी बुँदे पिला रही है। तो कोई प्रौढ़ा किसी नवयुवक को अपने मोहपाश में बांध रही है।
सभी मत है, शीत का यह उत्सव चरम पर है। जन नायिका आज एक नवयुवक ऋत के साथ नृत्य कर रही है, कल उसका कृपापात्र प्रौढ़ पर दृढ़ अमृत था। सभी युगल स्वतंत्र और स्वच्छंद इसी रंगशाला में रात्रिभर खान-पान-गान-नृत्य और अंक-शयन करेंगे। प्रातः कोई उठकर पशुओं को संभालेंगा कोई जन निवास का प्रबंध करेगा, कुछ अन्न और फल की खोज में जाएँगे, कुछ शिकार के लिए जंगलों में जाएँगे। कोमल लाल गालों वाले इनके बच्चे कुछ अपनी माता के पास तो कुछ स्वात की उपत्यका में खेल करेंगे।
किसी को इसकी खबर नहीं की इन गहरी जमी जड़ों की स्मृतियाँ सैकड़ों-हजारों वर्षों बाद स्वरूप बदल कर भी यथावत रहेंगी, उनके अपने वंशज इसे चिरजीवित रखेंगे अपनी नयी धरती आर्यावर्त में..अब धीरे-2 अतीत के तिमिर से वर्तमान के प्रकाश की ओर आइए.. अपने पुर्वजों के उन्ही मंत्र वाक्यों को दुहराते हुए गंगा के शीत जल में स्वयं को पावन करते हुए हमारे साथ बुदबुदाइए " असतो मा सद्गमय तमसो मा ज्योर्तियगमयः मृत्योर्मा अमृत गमयः"
आपको लोहड़ी, संक्रांति पर्व की शुभकामनाएँ और बैसाखी बसंतोत्सव की प्रतीक्षा..
इति शुभम्
अनुराग चतुर्वेदी ⚘
बहुत बहुत और बहुत बढि़या अनुराग।
ReplyDeleteवैसे अपने मन की कहूं तो वही जीवन बढि़या होगा आज के जीवन से। तब न तो कुछ जोड़ने की लालसा और न कुछ खो जाने का भय। न ही कुछ बचा कर रखने की ईच्छा और न ही कुछ खर्च हो जाने का डर। जो भी होता होगा, जो भी सोचा जाता होगा, जो भी किया जाता होगाा, बस केवल उस दिन के लिए ही और उस दिन क्या बस उसी पल में सब कुछ, अगले के लिए कुछ भी नहीं। लेकिन आज तो स्थिति ऐसी है कि इस पल और उस पल, आज के दिन, कल के दिन के लिए तो दूर अगले महीने और अगले साल के लिए भी एक दशक बाद के लिए सब कुछ सोचा जाता है, किया जाता है पर ये नहीं पता कि एक दशक बाद की बात तो दूर कल ही हम होंेगे हो या नहीं।
आज जिसे हम विकसित कहते हैं, अगर देखा जाए तो यही विनाश है, जितना ज्यादा विकास की ओर बढ़ते गए उतना ही विनाश की ओर चलते गए। न जाने वो पहला इंसान कौन होगा जो विकास का प्रचलन शुरू किया होगा। ये मेरी साइकिल, ये तेरी बाइका, ये उसका कार, वा रही मेरी मेट्रो, वो मेरा रेल और वो रहा मेरा हवाई जहाज, फिर वो दूर आसमान में मेरा लड़ाकू विमान और उसके थोड़ा ऊपर वो परमाणु हथियारों को ले जाता हुआ मेरा राॅकेट और भी न जाने क्या।
उस प्राचीन समय की तो कल्पना ही कर सकते हैं कि बस ऐसा हुआ होगा, वैसा हुआ होगा, पर 3 दशक पीछे जो कुछ था आज सब छूट गया है, जो 3 दशक पहले था आज कुछ भी नहीं है। वो प्यार, वो स्नेह, वो अपनापन, वो आत्मयीता, वो ममत्व, वो प्रेम आदि आदि आदि आदि चीजें। आज अगर कुछ है तो बस ये मेरा है, मेरे लिए है, इस पर बस मेरा अधिकार है.........................
धन्यवाद भैया, क्या कहें तब का दौर ही कुछ और था.. आज अंधी दौड़ में सब भागे जा रहे ना मालूम कहाँ जा रहे है। वह दिन दूर नहीं जब किराए पर अर्थी उठाने वाले खोजे जाएँगे।
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