नंदनकानन की ओर... भाग ~ ७
(हेमकुंड साहिब दर्शन ) -1 25/08/2018
सुबह कुछ खास अच्छी नहीं दिख रही थी, हल्की बारिश लगातार हो रही थी। रात भर तो जोरदार बौछार पड़ी थी, कल हेमकुंड साहिब जाने वाले जत्थे भी नहीं आए थे, बस गिनती का लोग ही कल गुरूद्वारे में भी थे। शाम को गुरूद्वारे की चहल पहल भी कुछ कम ही थी। तीन दिनों की लगातार बारिश और उत्तराखंड सरकार द्वारा जारी रेड एलर्ट का भी कुछ असर था शायद। तीन दिनों से हैली सेवा भी बंद ही रही थी।
सुबह मैं जल्दी ही उठ गया, ज्योती जी से एक बार फिर चलने के पुछा पर उन्होंने कल ही अपना मन बना लिया था, ऐसे खराब हालातों में पैरों के साथ खतरा मोल लेना भी ठीक बात नहीं। उनके पैरों में अभी दर्द था और वो बरसात में पत्थरों पर कठिन चढ़ाई करने के लिए स्वयं को तैयार नहीं कर पा रही थी तो मैंने भी ज्यादा जोर देना उचित नहीं समझा। जब मैं हेमकुंड ट्रैक पर जाऊँगा तब वो घांघरिया के आस पास के परिदृश्य का आनंद लेंगी और गुरूद्वारे में चल रहे शबदकीर्तन का भी.. सुबह 5 बजे ही मैं अपने कैमरे, छतरी, छड़ी, रेनकोट और एक छोटे बैकपैक में पानी की बोतल और थोड़े खाने-पीने की चीजों के साथ कमर कस चुका था, कठिन चढ़ाई और बरसातों से भिड़ने के लिए..
ज्योती जी मुझे विदा करने नीचे तक आए और फिर गुरू गद्दी पर माथा टेक कर मैं चल पड़ा था। बारिश से रास्तों की हालत खराब हो रही थी, घोड़े के अस्तबल वाली जगह पर तो लीद की कीचड़ हो चुकी थी। घांघरिया के दोनों छोर पर घोड़ो के कामचलाऊ अस्तबल स्टेशन से है, एक छोर से घोड़े नीचे पुलना स्टेशन तक जाते है दुसरे छोर से उपर हेमकुंड साहिब तक.. घोड़े इस पुरे पुरी जगह पर लाइफलाइन की तरह है यहाँ शक्ति की s.i unit हार्सपावर के सही मायने समझ में आते है। चाहे हेमकुंड गुरूद्वारा हो या घांघरिया का पुरा इलाका.. सभी कुछ घोड़ो की मेहरबानियों पर ही चल रहा है। सभी एहसानमंद है, पर घोड़ो की इसकी कुछ खबर ही नहीं उनको किसी ने कुछ बताया ही नहीं था, बेचारों की हालत बहुत खराब थी और उनके रिश्तेदार खच्चरों की भी.. उनका पुरा जीवन ही इन पहाड़ो पर चढ़ने उतरने में गुजर जाता है, और जब रिटायरमेंट आती है तो जंगलों में कोई गुलदार अपना डिनर बना लेता है। खैर बहुत हुआ घोड़ा पुराण..
मैं धीरे-2 शुरूआती चढ़ाई पर चलता जा रहा था। घांघरिया से बाहर निकलते ही हेमकुंड या लोकताल झील से निकलती लक्ष्मणगंगा झरने के रूप में गिरती दिखती है और गुरूद्वारे के पीछे काॅमेट की ढलानो पर टिपरा भमक से निकलती पुष्पावती में संगम बनाती है। कुछ देर फोटोग्राफी के बाद भी कोई दिखाई नहीं देता, तो मैं धीमे-2 आगे चलता हूँ। फूलों की घाटी को जाने वाला तिराहा तक पहुँचने में ही हालत खराब हो चली थी। मैंने अपनी चाल बिल्कुल घोंघे जैसी कर दी पर चढ़ाई कठिन होती जा रही थी। अब मैं उपर उपर और उपर चढ़ता चला जा रहा था, और थकान भी बढ़ती जा रही थी। इतनी की प्यास लगने पर में बैकपैक से पानी की बोतल निकालने के बजाए छोटे झरनों पर घोड़ो के पानी पीने के लिए बनाए गये टंकियों पर ही पानी पी ले रहा था शायद इससे कुछ अश्वशक्ति आ जाए। अब दूर नीचे लक्ष्मणगंगा पुल के पास कुछ लोग आते भी दिखने लगे थे कुछ जुझारू लोग जो मुझसे भी जल्दी चलें होंगे उनकी आवाजें भी सुनाई दे रही थी। पुरा रास्ता पत्थरों सा बना था पर उसकी हालत बहुत ही खराब थी कुछ जगह तो रास्ता बिल्कुल ही उखड़ गया था। ना मालूम घोड़े पर जाने वालों पर क्या गुजरती होगी।
यदी ऊँचाई के हिसाब से देखा जाए तो गोविंदघाट MSL से 1828 मी•, घांघरिया 3049 मी• और हेमकुंड साहिब 4633 मी• की ऊँचाई पर है। मतलब 6KM के रास्ते में कुल 1584 मी• की चढ़ाई जिसे दमतोंडू तो कहा ही जा सकता है। जिसमें शुरूआती 3KM तो नानी याद दिलाने वाले है, अभी मैं इसी नानी वाले जोन से गुजर रहा था। दूर सामने फूलों की घाटी के उपरी ग्लेशियर बादलों में दिखाई दे रहे थे। अगले ही मोड़ से यह खूबसूरत नजारा छिप गया और अब सामने पहाड़ की एक ऊँची दीवार आ गई जिसका उपरी छोर भी नहीं दिख रहा था। बारिश घने जंगलों के पेड़ से गुजर कर आ रही थी, अब मुझसे पहले निकले यात्री भी मिलने लगे थे। सबके चेहरों पर बारह ही बजे थे, और सभी हाँफ रहे थे मैं भी उनकी जमात में शामिल हो गया और जल्दी ही उनसे आगे निकल गया। नीचे से अब घोड़े और पालकीयों पर जाने वाले लोग आने लगे थे इन्हे फटाफट आँखों से ओझल होता देखकर तो और हिम्मत खत्म हो जा रही थी। रास्तों में कुछ एक चाय की दुकानें भी थी,पर यहाँ रूकना मेरे लिए खतरनाक होता एक बार बैठ जाने का मतलब था पैरों का जवाब दे देना।
चटपटी टाॅफीयों को चुसते रहने से गला नहीं सुखता और मन भी बहलता रहता है। मैं छड़ी के सहारे ही कुछ देर आराम करता फिर आगे चल देता, एक बार में बस 10-20 कदम ही चल पा रहा था। चढ़ाई बढ़ती जा रही थी और ताकत खत्म होती जा थी और ये नामुराद पेड़ खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहे थे। पेड़ होने का मतलब था की अभी मैं ट्री लाइन के नीचे ही चल रहा था और 3KMतक भी नहीं पहुँच पा रहा था। कभी पालकी वालों से कदमताल करपे की कोशिश करता पर जल्दी ही वो सभी आगे निकल जाते। अब मुझे खुद अपनी हालत पर गुस्सा आ रहा था, क्या इत्ती सी चढ़ाई भी थका डालती हैं?? दावा तो बड़े घुम्मकडी के करते हो.. खैर मानस दंद्व में डुबता-उतरता-खीझता बारिश से तरबतर भिगता चलता जा रहा था। अब कदम भी थोड़े संभाल कर रखनें थे, रास्ते के पत्थर बड़े चिकने और बेतरतीब हो चले थे। दूर दिखती सिर के उपर दिखती एक दूकान को लक्ष्य बना कर कुछ देर एकदम जीतोड़ चढ़ाई की जब उस दूकान के पास पहुँच गया तो देखा यहाँ दो चार दुकानों का समुह था,तकरीबन हर दुकान पर चाय मैग्गी और एनर्जी ड्रिंक की बोतलें बिक रही थी। अचानक जब ध्यान गया तो देखा नीचे घांघरिया बादलों के बीच दिखाई दे रहा है, अब मैं ट्री लाइन के उपर था और सामने अल्पाइन घास वनस्पतियाँ से घिरा घुमावदार पर कम चढ़ाई वाला रास्ता दिखाई दिया मतलब मैंने आधी जंग जीत ली थी।
पास ही एक टूटा सा बोर्ड था जिसपर हेमकुंड की दूरी 3km लिखी हुई थी। ठीक सर के उपर हेमकुंड साहिब की कुछ झलक दिखने लगी थी। लाउडस्पीकर की हल्की आवाज भी आने लगी थी। मैं एक ऊँची जगह पर था, यहाँ भी घोड़ो के आराम का एक छोटा स्टेशन बना हुआ था। अब तो मुझे जैसे जोश भर गया था, मैंने पुरे जोर से दनादन कदम बढ़ाये थे। घुमावदार रास्तों पर चलते-2 एक जगह पर सीमेंट की सीढ़ियाँ सीधी उपर जाती दिख रही है,शायद यह कोई शार्टकट था पर लेने की कोई गुंजाइश नहीं.. चलते-2 अचानक जब ब्लूपाॅपी का फूल दिखा था तो मैं लगभग चिल्ला पड़ा था.. यूरेका. यूरेका.. अब तो ब्लू पाॅपी के पौधे दर्जनों की संख्या में दिखने लगे थे। दूर कहीं ब्रह्मकमल भी दिख रहा था इन दोनों ही फूलों को पुरे फूलों की घाटी में ढूंढता रहा था में.. वापसी में तसल्ली से देखने का सोच कर अब जल्दी-2 कदम बढाए..
मुझे अपने से आगे निकल जा रहे घोड़े और पालकी वालों से इर्ष्या हो रही थी इसलिए नहीं की वो आगे जा रहे थे बल्कि इसलिए की उनको उपर की खूबसूरती ज्यादा देर देखने का मौका था। आगे एक झरना आया जोकी बाद में पता चला की हेमकुंड साहिब से निकलती धारा थी। जो की नीचे घांघरिया में लक्ष्मणगंगा झरने के रूप में दिखती है। नीचे जब घाटी से जब बादल हटे तो दूर-2 तक का नजारा था, नीचे पुरा घांघरिया, संगम और फूलों की घाटी की चढ़ाई वाला रास्ता भी नजर आ रहा था। अभी जब मैं इन नजारों में खोया हुआ था की अचानक एक झटका लगा और में रास्ते से लगी पत्थरों की दीवार पर उभरे एक नुकीले पत्थर पर जा टकराया। कमर पर जोरदार चोट लगी और आँखो के आगे, नेबूला, गैलेक्सी, मिल्की वे, पल्सर, सुपरनोवा, चांद, सितारे सब दिखने लगे। थोड़ा वक्त लगा था आँखों के आगे के अंधेरे को वापस उजाले में बदलने में.. जब हालत दुरूस्त हुई तो एक आदमी मेरे पैर पकड़-2 कर माफी मांग रहा था और सामने एक घोड़ा मार खा रखा रहा था। जैसे तैसे मैंने कराहते हुए दुसरे लड़के को घोड़े को मारने से रोका, तब तक कहानी साफ हो चुकी थी। हेमकुंड से उतरते हुए घोड़े पर लदी बोरियों से मुझे टक्कर लगी थी.. घोड़ा वाला बार बार माफी माँगते हुए सफाई दे रहा था की साब जी..! ये खच्चर अकेले नहीं चल सकते, और अकेले चलने पर बिदकते है और उल्टी सीधी हरकतें करते है।
खैर अब तो जो होना था हो चुका शुक्र है टक्कर लगने पर मैं दुसरी तरफ ना गिरा वरना कहाँ जाकर रूकता कुछ पता नहीं.. ये ख्याल आते ही मुझे रीढ़ तक सिहरन होती महसूस हुई। मैंने उसको खच्चर को पकड़ कर साथ ले जाने की हिदायत दी और आगे चलने के लिए बढ़ा था.. पैर तो टूट ही रही थी अब कमर भी टूट सी गई। मैंने अपने बैकपैक से कुछ ड्राई फ्रूट खाए पानी पीया, दर्द से कुछ राहत मिली। गनीमत थी की किसी ने इस टक्कर को देखा नहीं वरना खच्चर वालें की तो सामत ही आ जाती। खच्चर भी बेचारा मुफ्त में मार खा गया। अब हेमकुंड साहिब बस 1km ही दूर है सामने ही ढेरों टीन सी बनी दूकाने और इमारते नजर आ रही है। इधर मेरा ध्यान फिर से एक पहाड़ी दीवार पर लगे बड़े से ब्रह्मकमल ने खींच लिया.. बहुत ही सुंदर था वो पर उस तक पहुँचना नामुमकिन सा था शायद तभी वो सुरक्षित भी था। यहाँ आने वाले तीर्थ यात्री, पर्यटक और स्वयं यहाँ के मंदिर वाले भी इन दुर्लभ वनस्पतियों को नुकसान पहुँचाते रहते है। सामने घोड़ो का एक ओर स्टेशन आ गया था यह आखिरी था। यहाँ भी लीद की कीचड़ हो रखी थी। एक गली जैसा रास्ता पार किया, रास्ते के बगल में एक ऊँची ढलान पर सभी घोड़े-खच्चर बंधे थे पास ही पालकीयाँ भी रखी थी। एक बैरियर जैसा कुछ पार करते ही सामने दिखा था निशान साहिब का स्तंभ और लंगर। यहाँ एक सरदार जी पहरेदार जैसे हाथ में भाला लिए निहंग वेशभूषा में खड़े है। लंगर के पीछे दूर बर्फों वाले पहाड़ की हल्की झलक थी, पर उनपर जमकर बादल लिपटे हुए थे। हेमकुंड परिसर भी बादलों और कुहरे की चपेट में था। जब आगे लंगर में पहुँचा तो प्रसिद्ध हेमकुंड साहिब का गुरूद्वारा और हरे पानी वाली झील का पहला नजारा दिखाई दिया और में वहीं एक बेंच पर धड़ाम होकर एकटक यह दुर्लभ नजारा अपनी आँखों में बसा रहा था।
थोड़ी देर में ही यहाँ बारिश शुरू हो गई और थोड़ी दूर स्थित गुरूद्वारा नजरों से गायब सा हो गया। पुरी तरह तरबतर भीगे हुए कपड़ो में मुझे कंपकंपी लगने लगी थी। मैं लंगर में भागा था, एक बड़ा सा अजीब चूल्हा जल रहा था उस पर एक बड़े भगौने में चाय उबल रही थी, चूल्हे में आग जलाने के लिए एक कुप्पे में तेल बूँद-2 कर जा रहा था और फिर उसे बिजली के ब्लोअर से उसे बर्नर तक ले जाया जा रहा था तकनीक बहुत मजेदार थी। जल्दी से मैंने एक बड़े कटोरे मे वहाँ मिलती गरमागरम सोयाबीन की बड़ी वाली खिचड़ी और एक पुरा भरा गिलास चाय का लिया और भीगा हुआ जैकेट चूल्हे के पास सुखने को लटका दिया था। मैं यह बिल्कुल दावे से कह सकता हूँ की वैसी स्वाद खिचड़ी मैंने अपने पुरे जिंदगी में नहीं खाई थी। चाय और खिचड़ी के बाद मेरी कंपकंपी काबू में आयी थी। भीगी जैकेट वापस पहन कर मैं बाहर आया तो बादल चले गये थे, मौसम थोड़ा भीगा-2 पर खुल चुका था। मैंने अपना कैमरा संभाला और मौके का फायदा उठाते हुए धड़ाधड़ यादें बनाने लगा। झील हरे रंग की दिखाई दे रही थी, हेमकुंड साहिब गुरूद्वारे का लाइव टेलीकास्ट भी हो रहा था। फोटोग्राफी करते-करते में टीवी कैमरा के सामने आ खड़ा हुआ था, और कैमरामैन बेचारा चिल्ला-चिल्ला कर सामने से हटने को बोल रहा था। झील के चारों तरफ बोल्डर वाली ढलानें थी। जिनपर वर्ष के सात महीने बर्फ के ग्लेशियर बने रहते है, दूर दूसरे किनारे पर लक्ष्मण जी का मंदिर है। इस तरफ भी पर्वतों की ढलाने है, पर ढलानों पर किसी को जाने की इजाजत नहीं है। झील के आसपास टीन के गमले में ब्रह्मकमल लगे है, शायद ये गमले में लगे विश्व के इकलौते ब्रह्मकमल है।
झील में भी जोरदार करंट वाला पानी भरा हुआ है जैसे-तैसे हाथ मुँह धोकर गुरू के दरबार में हाजिरी लगाई, अरदास होने में अभी कुछ देर थी। गुरू गद्दी को प्रणाम कर बाहर आ गया, सर्दी का कहर था की अंदर प्रार्थना हाॅल में कंबलो के ढेर के ढेर पड़े हुए थे। एक छोटा सा पुल पार कर लक्ष्मण मंदिर तक जाया जा सकता है, इस पुल के नीचे से ही एक धारा नीचे तक झरने के रूप में पहुँचती है। लक्ष्मण मंदिर तक जाने के समय तक पुरा हेमकुंड का पहाड़ो से घिरा कटोरेनुमा इलाका बादलों से भर गया था। झील के किनारे खड़े होकर भी झील दिखाई नहीं पड़ रही थी। लक्ष्मण मंदिर आसपास के थोड़ी ढलानों पर टहलने और जायजा के बाद मंदिर में दर्शन के लिए पहुँचे पास ही एक छोटा शिवमंदिर भी बन गया है। दर्शन के क्रम में मेरा ध्यान दोनों जगह चढाए गये ढेरों ब्रह्मकमल के फूलों पर पड़ी। मैंने पुजारी जी से इस बाबत नाराजगी जाहिर की, और ब्रह्मकमल जैसे दुर्लभ फूलों के संरक्षण की बात की.. उन्होंने अनमने मन से टालने के लिए कहा की लक्ष्मण जी की पुजा ब्रह्मकमल से ही होती है। अब तो विवाद निश्चित था, और हुआ भी। अजीब अजीब मूर्खों से धरती भरी हुई है, गुस्से से तमतमाया मैं पैर पटकता में वापस आ गया..
गुरूद्वारे के सुझाव रजिस्टर पर मैंने इस बाबत एक नोट भी लिखा। यद्यपि गुरूद्वारे के लोग आस पास के पर्यावरण को संरक्षित रखने का प्रयास करते है, जिसके लिए वो बधाई के पात्र है। सुबह निकलने से पहले ही मैंने अपने केसरिया गमछे को पगड़ी की तरह सिर पर बांध रखा था, दुबारा में लंगर हाॅल में आकर मैं बाहर पानी गर्म करने के एक चूल्हे के पास बैठकर हाथ सेंकने लगा और खुद को सुखाने लगा, तभी वहाँ बैठे सरदार जी मुझे सेवादार समझ अपना प्रभार देकर चले गये। अब इस चूल्हे और लंगर में गर्म पानी की सप्लाई की जिम्मेदारी मेरे पास आ गई। मैं अपनी कुर्सी को आग के पास सेट कर लिया और खुद को सुखाते हुए सबको गर्म पानी देने लगा था। मौसम बिगड़ता ही जा रहा था अब बारिश जोर शोर से शुरू हो गई थी ना मालूम किसी घड़ी में हमने यह यात्रा शुरू की थी हरिद्वार से चलने लेकर आज तक बस बारिश से घिरते रहे और हर रोज पुरी तरह भीगते रहे और बारिश भी ऐसी की रेनकोट छतरी और पोंचू के बावजूद आप भीगने से बच नहीं सकते। अब मैं एक ड्यूटी पर मुस्तैद था, ठंड बढ़ने से मेरे पास भी गर्म पानी के लिए भीड़ लगने लगी।
मेरे पास अब कोई फुर्सत नहीं थी, अब मैं पानी लाने वाले आदमियों पानी बराबर लाने को आदेश भी देने लगा था। थोड़ी देर तो मैं भूल ही गया था की यहाँ कब और क्यों आया था, तकरीबन सभी को गर्म पानी चाहिए था। और गर्म पानी का काऊंटर मेरे जिम्मे था मैं भयंकर व्यस्त हो चला था। जब दिन की आखिरी अरदास की अनांउसमेंट हुई तब भी मैं व्यस्त ही रहा था और अरदास में जा ना सका था। अरदास के बाद श्रद्धालुओं को वापसी के समय के बारे में बताया जाने लगा था तब मुझे होश आया था की वापस भी जाना था। थोड़ी देर बाद मैंने एक ओर सरदार जी को अपना कार्यभार सौंपा और झील,गुरूद्वारा के चक्कर लगाए, लक्ष्मण मंदिर का पुजारी अभी तक मुझे घूर रहा था। गुरूद्वारे में अपने श्रद्धानुसार सहयोग राशी देने के बाद एक बार जीभर के सभी नजारों को आँखो और कैमरे में कैद कर मैं वापस जाने वाले रास्ते पर आ गया पर बार बार मुड़कर देखता रहा जब तक की गुरूद्वारा दिखना बंद नहीं हो गया। क्रमशः...
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इति शुभम्
अनुराग चतुर्वेदी⚘
(हेमकुंड साहिब दर्शन ) -1 25/08/2018
सुबह कुछ खास अच्छी नहीं दिख रही थी, हल्की बारिश लगातार हो रही थी। रात भर तो जोरदार बौछार पड़ी थी, कल हेमकुंड साहिब जाने वाले जत्थे भी नहीं आए थे, बस गिनती का लोग ही कल गुरूद्वारे में भी थे। शाम को गुरूद्वारे की चहल पहल भी कुछ कम ही थी। तीन दिनों की लगातार बारिश और उत्तराखंड सरकार द्वारा जारी रेड एलर्ट का भी कुछ असर था शायद। तीन दिनों से हैली सेवा भी बंद ही रही थी।
सुबह मैं जल्दी ही उठ गया, ज्योती जी से एक बार फिर चलने के पुछा पर उन्होंने कल ही अपना मन बना लिया था, ऐसे खराब हालातों में पैरों के साथ खतरा मोल लेना भी ठीक बात नहीं। उनके पैरों में अभी दर्द था और वो बरसात में पत्थरों पर कठिन चढ़ाई करने के लिए स्वयं को तैयार नहीं कर पा रही थी तो मैंने भी ज्यादा जोर देना उचित नहीं समझा। जब मैं हेमकुंड ट्रैक पर जाऊँगा तब वो घांघरिया के आस पास के परिदृश्य का आनंद लेंगी और गुरूद्वारे में चल रहे शबदकीर्तन का भी.. सुबह 5 बजे ही मैं अपने कैमरे, छतरी, छड़ी, रेनकोट और एक छोटे बैकपैक में पानी की बोतल और थोड़े खाने-पीने की चीजों के साथ कमर कस चुका था, कठिन चढ़ाई और बरसातों से भिड़ने के लिए..
ज्योती जी मुझे विदा करने नीचे तक आए और फिर गुरू गद्दी पर माथा टेक कर मैं चल पड़ा था। बारिश से रास्तों की हालत खराब हो रही थी, घोड़े के अस्तबल वाली जगह पर तो लीद की कीचड़ हो चुकी थी। घांघरिया के दोनों छोर पर घोड़ो के कामचलाऊ अस्तबल स्टेशन से है, एक छोर से घोड़े नीचे पुलना स्टेशन तक जाते है दुसरे छोर से उपर हेमकुंड साहिब तक.. घोड़े इस पुरे पुरी जगह पर लाइफलाइन की तरह है यहाँ शक्ति की s.i unit हार्सपावर के सही मायने समझ में आते है। चाहे हेमकुंड गुरूद्वारा हो या घांघरिया का पुरा इलाका.. सभी कुछ घोड़ो की मेहरबानियों पर ही चल रहा है। सभी एहसानमंद है, पर घोड़ो की इसकी कुछ खबर ही नहीं उनको किसी ने कुछ बताया ही नहीं था, बेचारों की हालत बहुत खराब थी और उनके रिश्तेदार खच्चरों की भी.. उनका पुरा जीवन ही इन पहाड़ो पर चढ़ने उतरने में गुजर जाता है, और जब रिटायरमेंट आती है तो जंगलों में कोई गुलदार अपना डिनर बना लेता है। खैर बहुत हुआ घोड़ा पुराण..
मैं धीरे-2 शुरूआती चढ़ाई पर चलता जा रहा था। घांघरिया से बाहर निकलते ही हेमकुंड या लोकताल झील से निकलती लक्ष्मणगंगा झरने के रूप में गिरती दिखती है और गुरूद्वारे के पीछे काॅमेट की ढलानो पर टिपरा भमक से निकलती पुष्पावती में संगम बनाती है। कुछ देर फोटोग्राफी के बाद भी कोई दिखाई नहीं देता, तो मैं धीमे-2 आगे चलता हूँ। फूलों की घाटी को जाने वाला तिराहा तक पहुँचने में ही हालत खराब हो चली थी। मैंने अपनी चाल बिल्कुल घोंघे जैसी कर दी पर चढ़ाई कठिन होती जा रही थी। अब मैं उपर उपर और उपर चढ़ता चला जा रहा था, और थकान भी बढ़ती जा रही थी। इतनी की प्यास लगने पर में बैकपैक से पानी की बोतल निकालने के बजाए छोटे झरनों पर घोड़ो के पानी पीने के लिए बनाए गये टंकियों पर ही पानी पी ले रहा था शायद इससे कुछ अश्वशक्ति आ जाए। अब दूर नीचे लक्ष्मणगंगा पुल के पास कुछ लोग आते भी दिखने लगे थे कुछ जुझारू लोग जो मुझसे भी जल्दी चलें होंगे उनकी आवाजें भी सुनाई दे रही थी। पुरा रास्ता पत्थरों सा बना था पर उसकी हालत बहुत ही खराब थी कुछ जगह तो रास्ता बिल्कुल ही उखड़ गया था। ना मालूम घोड़े पर जाने वालों पर क्या गुजरती होगी।
यदी ऊँचाई के हिसाब से देखा जाए तो गोविंदघाट MSL से 1828 मी•, घांघरिया 3049 मी• और हेमकुंड साहिब 4633 मी• की ऊँचाई पर है। मतलब 6KM के रास्ते में कुल 1584 मी• की चढ़ाई जिसे दमतोंडू तो कहा ही जा सकता है। जिसमें शुरूआती 3KM तो नानी याद दिलाने वाले है, अभी मैं इसी नानी वाले जोन से गुजर रहा था। दूर सामने फूलों की घाटी के उपरी ग्लेशियर बादलों में दिखाई दे रहे थे। अगले ही मोड़ से यह खूबसूरत नजारा छिप गया और अब सामने पहाड़ की एक ऊँची दीवार आ गई जिसका उपरी छोर भी नहीं दिख रहा था। बारिश घने जंगलों के पेड़ से गुजर कर आ रही थी, अब मुझसे पहले निकले यात्री भी मिलने लगे थे। सबके चेहरों पर बारह ही बजे थे, और सभी हाँफ रहे थे मैं भी उनकी जमात में शामिल हो गया और जल्दी ही उनसे आगे निकल गया। नीचे से अब घोड़े और पालकीयों पर जाने वाले लोग आने लगे थे इन्हे फटाफट आँखों से ओझल होता देखकर तो और हिम्मत खत्म हो जा रही थी। रास्तों में कुछ एक चाय की दुकानें भी थी,पर यहाँ रूकना मेरे लिए खतरनाक होता एक बार बैठ जाने का मतलब था पैरों का जवाब दे देना।
चटपटी टाॅफीयों को चुसते रहने से गला नहीं सुखता और मन भी बहलता रहता है। मैं छड़ी के सहारे ही कुछ देर आराम करता फिर आगे चल देता, एक बार में बस 10-20 कदम ही चल पा रहा था। चढ़ाई बढ़ती जा रही थी और ताकत खत्म होती जा थी और ये नामुराद पेड़ खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहे थे। पेड़ होने का मतलब था की अभी मैं ट्री लाइन के नीचे ही चल रहा था और 3KMतक भी नहीं पहुँच पा रहा था। कभी पालकी वालों से कदमताल करपे की कोशिश करता पर जल्दी ही वो सभी आगे निकल जाते। अब मुझे खुद अपनी हालत पर गुस्सा आ रहा था, क्या इत्ती सी चढ़ाई भी थका डालती हैं?? दावा तो बड़े घुम्मकडी के करते हो.. खैर मानस दंद्व में डुबता-उतरता-खीझता बारिश से तरबतर भिगता चलता जा रहा था। अब कदम भी थोड़े संभाल कर रखनें थे, रास्ते के पत्थर बड़े चिकने और बेतरतीब हो चले थे। दूर दिखती सिर के उपर दिखती एक दूकान को लक्ष्य बना कर कुछ देर एकदम जीतोड़ चढ़ाई की जब उस दूकान के पास पहुँच गया तो देखा यहाँ दो चार दुकानों का समुह था,तकरीबन हर दुकान पर चाय मैग्गी और एनर्जी ड्रिंक की बोतलें बिक रही थी। अचानक जब ध्यान गया तो देखा नीचे घांघरिया बादलों के बीच दिखाई दे रहा है, अब मैं ट्री लाइन के उपर था और सामने अल्पाइन घास वनस्पतियाँ से घिरा घुमावदार पर कम चढ़ाई वाला रास्ता दिखाई दिया मतलब मैंने आधी जंग जीत ली थी।
पास ही एक टूटा सा बोर्ड था जिसपर हेमकुंड की दूरी 3km लिखी हुई थी। ठीक सर के उपर हेमकुंड साहिब की कुछ झलक दिखने लगी थी। लाउडस्पीकर की हल्की आवाज भी आने लगी थी। मैं एक ऊँची जगह पर था, यहाँ भी घोड़ो के आराम का एक छोटा स्टेशन बना हुआ था। अब तो मुझे जैसे जोश भर गया था, मैंने पुरे जोर से दनादन कदम बढ़ाये थे। घुमावदार रास्तों पर चलते-2 एक जगह पर सीमेंट की सीढ़ियाँ सीधी उपर जाती दिख रही है,शायद यह कोई शार्टकट था पर लेने की कोई गुंजाइश नहीं.. चलते-2 अचानक जब ब्लूपाॅपी का फूल दिखा था तो मैं लगभग चिल्ला पड़ा था.. यूरेका. यूरेका.. अब तो ब्लू पाॅपी के पौधे दर्जनों की संख्या में दिखने लगे थे। दूर कहीं ब्रह्मकमल भी दिख रहा था इन दोनों ही फूलों को पुरे फूलों की घाटी में ढूंढता रहा था में.. वापसी में तसल्ली से देखने का सोच कर अब जल्दी-2 कदम बढाए..
मुझे अपने से आगे निकल जा रहे घोड़े और पालकी वालों से इर्ष्या हो रही थी इसलिए नहीं की वो आगे जा रहे थे बल्कि इसलिए की उनको उपर की खूबसूरती ज्यादा देर देखने का मौका था। आगे एक झरना आया जोकी बाद में पता चला की हेमकुंड साहिब से निकलती धारा थी। जो की नीचे घांघरिया में लक्ष्मणगंगा झरने के रूप में दिखती है। नीचे जब घाटी से जब बादल हटे तो दूर-2 तक का नजारा था, नीचे पुरा घांघरिया, संगम और फूलों की घाटी की चढ़ाई वाला रास्ता भी नजर आ रहा था। अभी जब मैं इन नजारों में खोया हुआ था की अचानक एक झटका लगा और में रास्ते से लगी पत्थरों की दीवार पर उभरे एक नुकीले पत्थर पर जा टकराया। कमर पर जोरदार चोट लगी और आँखो के आगे, नेबूला, गैलेक्सी, मिल्की वे, पल्सर, सुपरनोवा, चांद, सितारे सब दिखने लगे। थोड़ा वक्त लगा था आँखों के आगे के अंधेरे को वापस उजाले में बदलने में.. जब हालत दुरूस्त हुई तो एक आदमी मेरे पैर पकड़-2 कर माफी मांग रहा था और सामने एक घोड़ा मार खा रखा रहा था। जैसे तैसे मैंने कराहते हुए दुसरे लड़के को घोड़े को मारने से रोका, तब तक कहानी साफ हो चुकी थी। हेमकुंड से उतरते हुए घोड़े पर लदी बोरियों से मुझे टक्कर लगी थी.. घोड़ा वाला बार बार माफी माँगते हुए सफाई दे रहा था की साब जी..! ये खच्चर अकेले नहीं चल सकते, और अकेले चलने पर बिदकते है और उल्टी सीधी हरकतें करते है।
खैर अब तो जो होना था हो चुका शुक्र है टक्कर लगने पर मैं दुसरी तरफ ना गिरा वरना कहाँ जाकर रूकता कुछ पता नहीं.. ये ख्याल आते ही मुझे रीढ़ तक सिहरन होती महसूस हुई। मैंने उसको खच्चर को पकड़ कर साथ ले जाने की हिदायत दी और आगे चलने के लिए बढ़ा था.. पैर तो टूट ही रही थी अब कमर भी टूट सी गई। मैंने अपने बैकपैक से कुछ ड्राई फ्रूट खाए पानी पीया, दर्द से कुछ राहत मिली। गनीमत थी की किसी ने इस टक्कर को देखा नहीं वरना खच्चर वालें की तो सामत ही आ जाती। खच्चर भी बेचारा मुफ्त में मार खा गया। अब हेमकुंड साहिब बस 1km ही दूर है सामने ही ढेरों टीन सी बनी दूकाने और इमारते नजर आ रही है। इधर मेरा ध्यान फिर से एक पहाड़ी दीवार पर लगे बड़े से ब्रह्मकमल ने खींच लिया.. बहुत ही सुंदर था वो पर उस तक पहुँचना नामुमकिन सा था शायद तभी वो सुरक्षित भी था। यहाँ आने वाले तीर्थ यात्री, पर्यटक और स्वयं यहाँ के मंदिर वाले भी इन दुर्लभ वनस्पतियों को नुकसान पहुँचाते रहते है। सामने घोड़ो का एक ओर स्टेशन आ गया था यह आखिरी था। यहाँ भी लीद की कीचड़ हो रखी थी। एक गली जैसा रास्ता पार किया, रास्ते के बगल में एक ऊँची ढलान पर सभी घोड़े-खच्चर बंधे थे पास ही पालकीयाँ भी रखी थी। एक बैरियर जैसा कुछ पार करते ही सामने दिखा था निशान साहिब का स्तंभ और लंगर। यहाँ एक सरदार जी पहरेदार जैसे हाथ में भाला लिए निहंग वेशभूषा में खड़े है। लंगर के पीछे दूर बर्फों वाले पहाड़ की हल्की झलक थी, पर उनपर जमकर बादल लिपटे हुए थे। हेमकुंड परिसर भी बादलों और कुहरे की चपेट में था। जब आगे लंगर में पहुँचा तो प्रसिद्ध हेमकुंड साहिब का गुरूद्वारा और हरे पानी वाली झील का पहला नजारा दिखाई दिया और में वहीं एक बेंच पर धड़ाम होकर एकटक यह दुर्लभ नजारा अपनी आँखों में बसा रहा था।
थोड़ी देर में ही यहाँ बारिश शुरू हो गई और थोड़ी दूर स्थित गुरूद्वारा नजरों से गायब सा हो गया। पुरी तरह तरबतर भीगे हुए कपड़ो में मुझे कंपकंपी लगने लगी थी। मैं लंगर में भागा था, एक बड़ा सा अजीब चूल्हा जल रहा था उस पर एक बड़े भगौने में चाय उबल रही थी, चूल्हे में आग जलाने के लिए एक कुप्पे में तेल बूँद-2 कर जा रहा था और फिर उसे बिजली के ब्लोअर से उसे बर्नर तक ले जाया जा रहा था तकनीक बहुत मजेदार थी। जल्दी से मैंने एक बड़े कटोरे मे वहाँ मिलती गरमागरम सोयाबीन की बड़ी वाली खिचड़ी और एक पुरा भरा गिलास चाय का लिया और भीगा हुआ जैकेट चूल्हे के पास सुखने को लटका दिया था। मैं यह बिल्कुल दावे से कह सकता हूँ की वैसी स्वाद खिचड़ी मैंने अपने पुरे जिंदगी में नहीं खाई थी। चाय और खिचड़ी के बाद मेरी कंपकंपी काबू में आयी थी। भीगी जैकेट वापस पहन कर मैं बाहर आया तो बादल चले गये थे, मौसम थोड़ा भीगा-2 पर खुल चुका था। मैंने अपना कैमरा संभाला और मौके का फायदा उठाते हुए धड़ाधड़ यादें बनाने लगा। झील हरे रंग की दिखाई दे रही थी, हेमकुंड साहिब गुरूद्वारे का लाइव टेलीकास्ट भी हो रहा था। फोटोग्राफी करते-करते में टीवी कैमरा के सामने आ खड़ा हुआ था, और कैमरामैन बेचारा चिल्ला-चिल्ला कर सामने से हटने को बोल रहा था। झील के चारों तरफ बोल्डर वाली ढलानें थी। जिनपर वर्ष के सात महीने बर्फ के ग्लेशियर बने रहते है, दूर दूसरे किनारे पर लक्ष्मण जी का मंदिर है। इस तरफ भी पर्वतों की ढलाने है, पर ढलानों पर किसी को जाने की इजाजत नहीं है। झील के आसपास टीन के गमले में ब्रह्मकमल लगे है, शायद ये गमले में लगे विश्व के इकलौते ब्रह्मकमल है।
झील में भी जोरदार करंट वाला पानी भरा हुआ है जैसे-तैसे हाथ मुँह धोकर गुरू के दरबार में हाजिरी लगाई, अरदास होने में अभी कुछ देर थी। गुरू गद्दी को प्रणाम कर बाहर आ गया, सर्दी का कहर था की अंदर प्रार्थना हाॅल में कंबलो के ढेर के ढेर पड़े हुए थे। एक छोटा सा पुल पार कर लक्ष्मण मंदिर तक जाया जा सकता है, इस पुल के नीचे से ही एक धारा नीचे तक झरने के रूप में पहुँचती है। लक्ष्मण मंदिर तक जाने के समय तक पुरा हेमकुंड का पहाड़ो से घिरा कटोरेनुमा इलाका बादलों से भर गया था। झील के किनारे खड़े होकर भी झील दिखाई नहीं पड़ रही थी। लक्ष्मण मंदिर आसपास के थोड़ी ढलानों पर टहलने और जायजा के बाद मंदिर में दर्शन के लिए पहुँचे पास ही एक छोटा शिवमंदिर भी बन गया है। दर्शन के क्रम में मेरा ध्यान दोनों जगह चढाए गये ढेरों ब्रह्मकमल के फूलों पर पड़ी। मैंने पुजारी जी से इस बाबत नाराजगी जाहिर की, और ब्रह्मकमल जैसे दुर्लभ फूलों के संरक्षण की बात की.. उन्होंने अनमने मन से टालने के लिए कहा की लक्ष्मण जी की पुजा ब्रह्मकमल से ही होती है। अब तो विवाद निश्चित था, और हुआ भी। अजीब अजीब मूर्खों से धरती भरी हुई है, गुस्से से तमतमाया मैं पैर पटकता में वापस आ गया..
गुरूद्वारे के सुझाव रजिस्टर पर मैंने इस बाबत एक नोट भी लिखा। यद्यपि गुरूद्वारे के लोग आस पास के पर्यावरण को संरक्षित रखने का प्रयास करते है, जिसके लिए वो बधाई के पात्र है। सुबह निकलने से पहले ही मैंने अपने केसरिया गमछे को पगड़ी की तरह सिर पर बांध रखा था, दुबारा में लंगर हाॅल में आकर मैं बाहर पानी गर्म करने के एक चूल्हे के पास बैठकर हाथ सेंकने लगा और खुद को सुखाने लगा, तभी वहाँ बैठे सरदार जी मुझे सेवादार समझ अपना प्रभार देकर चले गये। अब इस चूल्हे और लंगर में गर्म पानी की सप्लाई की जिम्मेदारी मेरे पास आ गई। मैं अपनी कुर्सी को आग के पास सेट कर लिया और खुद को सुखाते हुए सबको गर्म पानी देने लगा था। मौसम बिगड़ता ही जा रहा था अब बारिश जोर शोर से शुरू हो गई थी ना मालूम किसी घड़ी में हमने यह यात्रा शुरू की थी हरिद्वार से चलने लेकर आज तक बस बारिश से घिरते रहे और हर रोज पुरी तरह भीगते रहे और बारिश भी ऐसी की रेनकोट छतरी और पोंचू के बावजूद आप भीगने से बच नहीं सकते। अब मैं एक ड्यूटी पर मुस्तैद था, ठंड बढ़ने से मेरे पास भी गर्म पानी के लिए भीड़ लगने लगी।
मेरे पास अब कोई फुर्सत नहीं थी, अब मैं पानी लाने वाले आदमियों पानी बराबर लाने को आदेश भी देने लगा था। थोड़ी देर तो मैं भूल ही गया था की यहाँ कब और क्यों आया था, तकरीबन सभी को गर्म पानी चाहिए था। और गर्म पानी का काऊंटर मेरे जिम्मे था मैं भयंकर व्यस्त हो चला था। जब दिन की आखिरी अरदास की अनांउसमेंट हुई तब भी मैं व्यस्त ही रहा था और अरदास में जा ना सका था। अरदास के बाद श्रद्धालुओं को वापसी के समय के बारे में बताया जाने लगा था तब मुझे होश आया था की वापस भी जाना था। थोड़ी देर बाद मैंने एक ओर सरदार जी को अपना कार्यभार सौंपा और झील,गुरूद्वारा के चक्कर लगाए, लक्ष्मण मंदिर का पुजारी अभी तक मुझे घूर रहा था। गुरूद्वारे में अपने श्रद्धानुसार सहयोग राशी देने के बाद एक बार जीभर के सभी नजारों को आँखो और कैमरे में कैद कर मैं वापस जाने वाले रास्ते पर आ गया पर बार बार मुड़कर देखता रहा जब तक की गुरूद्वारा दिखना बंद नहीं हो गया। क्रमशः...
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इति शुभम्
अनुराग चतुर्वेदी⚘
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घांघरिया से निकलते ही लक्ष्मणगंगा का झरना |
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जंगल के बीच रास्ता और दूर दिखते बर्फिली चोटियाँ |
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सुबह घाटी का मनमोहक नजारा |
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हेमकुंड ट्रैक से नजर आता फूलों की घाटी का रास्ता और ग्लेशियर |
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फूलों की घाटी से आती पुष्पावती नदी और नीचे घांघरिया का नजारा |
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3km आ गये, अब इतना ओर.. दूर घुमावदार रास्ता बादलों के पार तक |
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घाटी में घुसपैठ करते घने बादल |
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बादलों का आक्रमण, एक घोडों का स्टेशन बेचारे भीगते हुए |
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आखिरी दुकानें अब बस चढ़ाई चढ़ाई चढ़ाई ट्री लाइन के उपर |
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हेमकुंड साहिब गुरूद्वारे में मिली खिचड़ी और चाय |
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उबलती चाय और मजेदार चुल्हा |
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हेमकुंड प्रवेश रास्ता, प्रहरी निहंग |
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पहले दर्शन श्री हेमकुंड साहिब के.. |
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सरोवर का सुरम्य नजारा और निशान साहिब |
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पल मे धूप पल में अंधेरा, बादलों की आँख मिचौली |
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बरसतें बादलों के बीच गुरूद्वारे की झांकी |
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आखिरकार मिल ही गये, प्राकृतिक दुर्लभ मोमो..साॅरी जी.. ब्रह्मकमल |
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एक शाॅट ब्रह्मकमल के नाम |
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आखिर मैं ही तो हूँ.. |
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पगड़ी कैसी लग रही ?? |
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हेमकुंड साहिब का मुख्य दरवाजा |
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लोकपाल लक्ष्मण मंदिर की और जाता रास्ता छोटा सा पुल और नीचे उतरते बादल |
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शेषावतार लोकपाल लक्ष्मण जी का मंदिर पीछे बादलों में गायब सरोवर |
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लोकपाल महिमा |
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हेमकुंड झील से निकलती लक्ष्मण गंगा की धारा |
दिल को छू गयी आपकी लेखनी। आप जहां जाते हैं वहीं के होकर रह जाते हैं यहीं एक अच्छे घुमक्कड़ की पहचान है।
ReplyDeleteबेहद शुक्रिया चंद्रेश भईया आपका.. हर जगह को आत्मसात करना और नई चीजें जानना और सीखना ही तो मेरी घुम्मकड़ी के बुनियादी लक्ष्य है। जल की तरह स्वभाव होना चाहिए जैसा पात्र मिले वैसा आकार ग्रहण करता चले ऐसा मेरा मानना है जी। 😊🙏🙏
Deleteज़ोरदार यात्रा वृतांत। आपने मुझे दो साल पहले वाली मेरी यात्रा याद दिला दी।
ReplyDeleteशुक्रिया सर.. अभिभूत हुआ सुनकर 🙏
Deleteवाह सर वाकई मजा आ गया !!
ReplyDeleteशुक्रिया.. जी
Deleteहेमकुंड के ठंडे जल से स्नान किया मैंने तो मेरी 12 पुश्ते याद आ गई। साधारण खाना भी लंगर का अति स्वादिष्ट लगता ह5।
Deleteहाहाहा हाहा.. 12 पुस्ते बुआजी..
Delete1000-1500 साल पीछे चले गये 😂😂😃
अनुज, जब यात्रा के दौरान सेवा का अवसर मिले तो वह सुअवसर में शामिल हों जाता है। यह एक सुअवसर रहा आपके लिये।
ReplyDeleteमहादेव के संगत का असर हुआ लुढकनिया ले ली आपने भी। वैसे भी जब यात्रा पथ पर पालकी,डोली और घोडे़ खच्चर की आवाजाही होती है तब पथ पर सतर्कता नितांत आवश्यक हो जाती है। अमरनाथ यात्रा, केदारनाथ यात्रा, माता दरबार और अन्य जगह पर यात्रा के दौरान बहुतेरे श्रद्धालुओं के घुटने टकराते है या पैदल चलने वालों को धक्का लगता है और इस प्रकार की दुर्घटना हो जाती है। चोटिलावस्था मे भी आपने रोमांचकारी यात्रा की यह दीगर बात है।
लुढकनिया महादेव की जयजयकार.. कमर के बल गिरने के बाद तो अंधेरा छा गया था एकदम.. इसलिए मैं कभी घोड़े पर नहीं बैठता..
Deleteबहुत शुक्रिया भईया जी 🙏🙏😊