नालंदा-राजगीर यात्रा ~ पुर्नजन्म की यात्रा, भाग - 2
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आखिरकार मैं अपनी इच्छित जगह पर पहुँच चुका था, तो मेरी खुशी का ठिकाना नहीं था और मेरे दोनों मित्र मुझे अजीब सी नजरों से देख रहे थे। खैर यह एक छोटी सी जगह थी जहाँ एक तरफ ढाबेनुमा खाने पीने की दुकानें और दुसरी तरफ ढेर सारी यादगार जैसी वस्तुओं की दुकानें थी जहाँ बुद्ध की मुर्तियाँ घर की मुर्गी दाल बराबर हो रही थी।
कारण था संपुर्ण विश्व से आए पर्यटक, घुम्मकड़, शोधार्थी और बुद्धिष्ठ सर्किट यात्रा के लिए आए श्रद्धालुओं का नालंदा का एक अहम पडाव होना; भगवान बुद्ध के प्रिय शिष्य सारिपुत्र का जन्म स्थान होना। तक्षशिल विश्वविद्यालय के ध्वंस के उपरांत प्राचीनकाल में नालंदा का संपुर्ण भारतवर्ष अपितु विश्व भर में ज्ञान का एक केंद्र रहना। नवीनयुग में पाली और बौद्ध ग्रंथों के अध्ययन का एक केंद्र होना और प्राचीन नालंदा विहार के ध्वंसावशेषों का उत्खनन से प्राप्त होना।
इसलिए यहाँ इतने जापान, चीन, नार्थ इस्ट के देशों आदी के बौद्ध पर्यटक दिखते है की कई बार ऐसा भ्रम हो जाता है की हम अपने देश इंडिया में ही है। लगातार बाइक चलाने से सुन्न हो गये शरीर के निचले भाग और धूल धूसरित चेहरा के साथ हमने अपनी बाइक नालंदा विहार के मुख्य द्वार से कुछ दूरी पर एक होटल पर पार्क की और अपना हुलिया दुरूस्त कर कपड़े बदल लिए। मैं जितनी जल्दी हो सके उन खंडहरो को छू लेने के लिए बेचैन था पर होनी को कुछ मंजूर था। हालत सुधारने के क्रम में ही दोनों मित्रों की नजर गर्मागर्म निकलते समोसों पर जा पड़ी और उन्होंने मेरी बात अनसुनी कर बख्तियार खिलजी की तरह उन पर आक्रमण कर बैठे और मेरे ख्याब फिर से प्रतिक्षारत हो गये। खैर जल्दी निवृत होकर हम टिकट खिड़की पर आए और उत्खनन साइट और सामने ही स्थित संग्रहालय देखने का टिकट ले लिया जिनका मूल्य 15 और 5 रूपये क्रमशः था। टिकट घर के सामने ही हरे भरे मैदान में एक बड़ा सा घंटा एक सीमेंटेड मेहराब में लगा हुआ बहुत सुंदर लग रहा था। उसके साथ तस्वीर लेने की होड़ लगी हुई थी।
टिकट जाँच के बाद हम उत्खनित नालंदा महाविहार परिसर में थे। एक लंबा गलियारानुमा रास्ता और उसके दोनो तरह फैले हरे भरे घास के मैदान, रास्ते के किनारे लंबे छायादार अशोक के पेड़ लगे थे, एक गोलाकार स्थान पर UNESCO world heritage site का प्रमाणपत्र पीतल के पत्र पर खुदा हुआ था, दुसरी तरह पत्थर पर नालंदा महाविहार की सामान्य जानकारी दर्ज थी। यहाँ से कुछ ही दूर आगे महाविहार का प्रवेश द्वार था; अंदर कदम रखते ही जैसे में किसी और लोक में आ गया, वहाँ सैकड़ों लोग थे सावन के महीना होने के कारण देवघर (झारखंड) से लौटते कांवरिए भक्त माहौल को केसरिया रंग दे रहे थे, अनगिनत युवा अपनी प्रेयसियो के गोद में सर रख सुखद भविष्य के सपने संजो रहे थे और मुझे स्थीलता और किंकर्तव्यविमुढ़ता के दौरे पड़ रहे थे।
मेरी मानसिक स्थिति ऐसी थी जैसे अपना ही घर हो, जहाँ की हर ईट हर दिवार जानी पहचानी लग रही थी, हालाँकि उसे में पहली बार ही देख रहा था, मैं पागलों जैसे हर ईंट पर हाथ फेरता चल रहा था। भारत के अनेक प्राचीनतम ऐतिहासिक स्थानों पर जाने और उन्हे महसूस करने के बाद भी मुझे नालंदा महाविहार जैसा अहसास और कहीं नहीं हुआ। इस यात्रा के बाद मैं चार और बार नालंदा की यात्रा कर चुका हूँ पर हर बार कुछ छुटा हुआ सा ही लगता है। मेरे साथ आजतक गए सभी साथी यहाँ पहुँचते ही मेरे अंदर पर्सनालिटी डिसआर्डर होने की बात स्वीकार करते है और मैं हमेशा उनका खंडन !!
ये तो रही मेरी बात सुबह से थके हारे मेरे दोनों मित्रों ने जब इस लाल ईंट की दीवारों और ढेरों को देखा तो मुझे इस ईंट के भठ्ठे जैसी जगह के लिए इतना परेशान करने के लिए मन भर कोसा... खैर भन्नाए हुए इन दिमागों के शांति के लिए आस पास अनगिनत अंतर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय खुबसुरती बिखरी पड़ी थी तो दोनो घास के मैदान पर लगे बैंच पर उनको निहारने के लिए ढेर हो गए और मैं मनमर्जी करने के लिए स्वतंत्र हो गया। अब तो हर ईंट, हर पत्थर, हर खंबा, हर दीवार, हर चैत्य, हर विहार, हर कुँए अपने थे।
आखिरकार विलंब होने और संग्रहालय के बंद हो जाने की दुहाई पर मैं बाहर आया। और फिर हम सामने ही सड़क के दूसरी ओर संग्रहालय की ओर चल पड़े...
साथ में पेश है नालंदा विश्वविद्यालय की कहानी मेरी जुबानी-
।। नालंदा की कहानी उसी की जुबानी ।।
नालंदा आने की खुशी और भावातिरेक में आकर थोड़े देर ध्यान मुद्रा में बैठा ही था, की मानस में एक दिव्य पुरूष का दर्शन हुआ। हठात ही पूछ बैठा- कौन? प्रेममिश्रित क्रोध में बोले- मूर्ख!! मुझसे ही तो मिलने आया है, मैं ही तो आदी पुरूष शेष हूँ इस अभागे विश्वविद्यालय का।चलो! आवो मैं तुम्हे अपने समय यात्रा पर ले चलता हूँ। मैंने मौन स्वीकृति दी और मेरा अंतःमन गिरता गया एक गहन तिमिर में...
जब प्रकाश हुआ तो ये समय अलग था, हम 300 वर्ष ई•पू• काल में थे। सामने आम के बगीचे में उत्सव का माहौल था। आर्याव्रत के चक्रवर्ती सम्राट अशोक आ रहे थे, आज भगवान बुद्ध के प्रिय शिष्य सारिपुत्र के जन्म स्थान नालंदा में एक महा विहार की स्थापना करने। जो आगामी कालखंड मे शिक्षा और ज्ञान का एक पुंज बन कर विश्वपटल को रौशन करने वाला था। मैंने अपने ऑखो से अशोक को ढोल नगाडो, वेदपाठों और बुद्ध मंत्रों के बीच नींव का पहला पत्थर स्वयं ही रखते हुए देखा। समय अपने द्रुत चाल से चला और निरंतर इस बौद्ध महाविहार का विकास होता गया, फिर समय ठहरता है 5वीं सदी के गुप्तकाल में- गुप्त सम्राट "कुमारगुप्त"(414-455) ने मुझे एक विश्वविद्यालय की तरह स्थापित और प्रतिष्ठित किया। तक्षशिला के हूणों और हिंद यवनो के आक्रमण द्वारा विंध्वस के बाद मेरी ख्याति अंतर्राष्ट्रीय होती जा रही है। चीन, जापान, कोरिया, तिब्बत और तोखरा से मेरे अनेक विद्यार्थी अनेक वर्षों की दुष्कर यात्रा कर ज्ञान की तलाश में आते जा रहे है उनमें मेरे कुछ प्रसिद्ध प्रिय विद्यार्थी भी है जैसे- ह्वेन सांग, युवान-च्वांग, या-कि- बहुवैनन, चुवानिह, डिछ-निह,आर्यवर्मन, हाइनीज,फाह्यान और इत्सिंग।
मेरे पहले कुलपति महान दार्शनिक और रसायनविद् नागार्जुन थे, उसके बाद अनेक श्रृंखलाए चली जिनमें प्रमुख कुलपति आर्यवेद, असंग, वसुबंधु, धर्मपाल, राहुल, चंद्रपाल, प्रभाकर मिश्र, अश्वघोष,पद्मसंभव और शीलभद्र आदी थे।इनमें सबसे प्रसिद्ध सोलह भाषाओं के ज्ञाता, सभी ग्रंथो के माहिर और ह्वेनसांग के समय कुलपति एवं उसके शिक्षक 'शीलभद्र' थे। जिनके आदेश पर कुछ सालों तक ह्वेनसांग ने भी मेरा प्राध्यापक बन शिक्षण कार्य किया। समय निरंतर गतिमान था। गुप्तकालीन राजाओं(5वीं- 6वीं ई•), कन्नौज नरेश मौखरीवंशीय "हर्षवर्धन"(606-647 ई•) और बंगाल के पाल वंशीय शासक धर्मपाल इत्यादि द्वारा मेरा सर्वोच्च विकास कैया जा रहा था। मेरे प्रबंधन के लिए 200 ग्रामों का राजस्व मुझे प्रदान किया जाता था।
फिर एक महत्वपूर्ण दिन आता है, आज मेरे द्वार पर मेरा प्रिय विद्यार्थी "यात्रियों का राजकुमार" ह्वेनसांग चीन से आया हुआ है। द्वार पर ही द्वारपाल 'द्वार-पंडित' उसकी प्रवेश-परीक्षा लेता है, जो अत्यंत कठीन है, सौभाग्य से वह उत्तीर्ण होता है। ह्वेनसांग,फाह्यान और इत्सिंग ने मेरा बहुत ही विशद वर्णन किया है, लो अब कुछ उनके शब्दों में ही सुनो-
फाह्यान बताते है कि- विश्वविद्यालय में प्रतिदिन शयन,जागरण, भोजन, अध्ययन, पुजा-आराधना इत्यादि सबकुछ एक घंटे की आवाज से संचालित होता है। संघाराम (विहार) में प्रत्येक विधार्थी के लिए एक अलग कोठरी निर्धारित है, जिसकें दीवारों में दीपक के लिए आलें और ताखें बने हुए है, पत्थर की पट्टीयों का शयनासन बना हुआ है।सभा,व्याख्यान और सामूहिक प्रवचन के लिए अनेक प्रस्तर स्तंभ युक्त मंडप बने हुए है। जिनमें 2000 तक विधार्थी एक साथ बैठ सकते है। विश्वविद्यालय में भिक्षु तथा सामान्य दोनों प्रकार के विद्यार्थी थे, जिनको निशुःल्क शिक्षा दी जाती है। रहने खाने और कपड़े इत्यादि की व्यवस्था स्वयं विश्वविद्यालय ही करता है। विधार्थीयों को पौष्टिक व सात्विक भोजन मिलता है, जिसमें- प्रातःकाल चावल का पानी या माड़, दोपहर को महाशालि धान का चावल, मक्खन, दुध,फल, घी और मीठे तरबूज और शाम को हल्का भोजन समान रूप से मिलता था। विधार्थीयों को मुद्रास्पर्श की मनाही थी, इसलिए लेन देन के लिए विश्वविद्यालय की अपनी मिट्टी की मुद्रा प्रचलित थी, जिसपर श्री नालंदा महाविहार आर्यभिक्षु संघस्य अंकित था।
ह्वेनसांग और इत्सिंग मेरा वर्णन करते हुए लिखते है कि-
विशालकाय विश्वविद्यालय परिसर में अनेक संघाराम या विहार, चैत्य और मंदिर निर्मित है। 8 फुट मोटी उंची दीवारों से घिरे परिसर में आठ आयताकार थे जिनमें कक्षायें लगती थी और आचार्यो के व्याख्यान होते थे। विधार्थीयों को शिक्षा व्याख्यान और वाद विवाद के माध्यम से ही दी जाती है। दूसरी तरफ कई वेधशालाऐं और कार्यशालाओं के भवन थे जिनमें जलवायु व ग्रह-नक्षत्रों की जानकारी वाले अनेक यंत्र लगे हुए है, पास ही एक धातु भठ्ठी भी स्थापित है। विहार से कुछ दूरी पर चारमंजिला छात्रावास का भवन है, जिनमें की पाॅच हजार से अधिक विधार्थीयों के निवास की सुविधा है। विश्वविद्यालय का कार्यकाल आठ घटी का होता है, चार घटी प्रातःकाल और चार घटी अपराह्न में शेष समय विधार्थी अपने मनपसंद कार्य कर सकते है। नालंदा में पढ़ने वाले विदेशी विद्यार्थीयों को भी भारतीय परिवेश में ही रहना होता है तथा उनका भारतीय नामकरण भी होता है। यहाँ विद्यार्थी का प्रवेश 10 वर्षों के लिए होता है और उसे धर्मशास्त्र, व्याचरण, तर्कशास्त्र (हेतु विद्या), खगौलिकी, तत्वज्ञान, चिकित्सा एवं दर्शनशास्त्र की की शिक्षा दी जाती है।
नालंदा के ग्रंथालयो में हस्तलिखित ग्रंथों की एक विशाल संपदा है, जोकि बड़ी-बड़ी तीन बहुमंजिलों वाली इमारतों में संग्रहीत है, जिनकें नाम क्रमशः रत्नसागार, रत्नोदधि और रत्नरंजक है। इनमें सबसे बड़ा रत्नोदधि है जिसका विस्तार नौ खंडों तक है।उन सभी खंडों में बहुमूल्य ग्रंथ और पांडुलिपियाँ क्रमानुसार सुसज्जित रखी हुई है। इन पुस्तकालयों के प्रधान कोई वरिष्ठ प्राचार्य होते है। यहाँ अनेक विद्यार्थी अपने शेष समय में इन ग्रंथों की प्रतिलिपीयाॅ तैयार करते है, मेरे पुस्तकालयों से ही ह्वेनसांग और इत्सिंग ने क्रमशः सात सौ और चार सौ ग्रंथो की नकल तैयार कर बहुमूल्य खजाने की तरह सहेज कर अपने देश चीन ले गये।
मेरे पुस्तकालयों की कुछ हस्तलिखित ग्रंथ तुम्हारे वर्तमान के कैंब्रिज ऑफ लंदन पुस्तकालय में और 12वीं रचित मेरी महायान शाखा की विख्यात भट्टसाहसिका प्रज्ञापारामति नामक ग्रंथ की प्रतिलिपीयाँ आज नेपाल और लंदन की राॅयल एशियाटिक सोसाइटी और ऑक्सफोर्ड की बटालियन लाइब्रेरी में सुरक्षित रखी है।
मैं 700 वर्षों तक ज्ञान का सुर्य बना रहा, यद्यपि की मेरा ह्रास बहुत पहले ही शुरू हो गया था, भारत के स्वर्णयुग कहे जाने वाले गुप्तकाल के उत्तरार्ध में ही कुछ अयोग्य और लालची भिक्षुओं के कारण नालंदा महाविहार जैसा महान विश्वविद्यालय अनाचारो का अड्डा बनता जा रहा था जोकि परवर्ती पाल शासकों के समय और ही तीव्र हो गया था। लगभग 1200 ई• में कुतुबुद्दीन ऐबक का निर्मम सिपहसलार बख्तियार खिलजी की कुदृष्टि मेरे शांत प्रांगण पर पड़ गयी और उसने नालंदा महाविहार विश्वविद्यालय पर आक्रमण कर मेरे जैसे विद्या के मंदिर को नष्ट- भ्रष्ट कर डाला। तुर्की इतिहासकार 'मिनहाज' लिखता है कि- वह विध्वंस इतना प्रलंयकारी और भयावह था कि नालंदा महाविहार का नामोनिशान मिट गया।
"मेरे हजारों भिक्षुओं और विद्यार्थीयों की बर्बरतापुर्वक हत्या कर दी गई, लहु की नदी बह चली और मेरे पांव उनके रक्त के कीचड़ से सन गये, मैं चित्कार उठा और सदैव के लिए गिर गया। मेरे अमूल्य पुस्तकालयों मे आग लगा दी गयी और मेरे सबसे बड़े खजाने, विश्वज्ञान की पांडुलिपियों को जलाकर उन मूर्ख लुटेरों ने अपने भोजन पकाए। कहते है कि मेरा पुस्तकालय तीन माह तक जलता रहा, और भष्म हो गया भारतवर्ष का समस्त ज्ञान, वैभव, स्वाभिमान, सौभाग्य। मैं बस भूलुठिंत हो कतार नेत्रों से अपना भीषण अवसान देखता रहा और वक्त की रेत ने मुझे दफ्न कर दिया।"
कालचक्र घुमता रहा और बिट्रिश विख्यात पुरातत्ववेता सर कनिंघम ने सदियों बाद मेरे अवशेष खोज निकाले। फिर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के उत्खनन(1915-37 तथा 1974-82) ने मुझे पुनः अनावृत कर विश्वपटल पर ला दिया। मेरे खंडहरों से यहाँ ईट निर्मित छः मंदिर एवं ग्यारह विहारों की सुनियोजित श्रृंखला अनावृत हुई, जिनका विस्तार एक किलोमीटर से भी अधिक है। लगभग तीस मीटर चौड़े उत्तर- दक्षिण पथ के पश्चिम में मंदिर और पुर्व में विहारों की श्रृंखला है। आकार और विन्यास में सभी विहार एक जैसे है सर्वाधिक महत्वपूर्ण संरचना दक्षिणी छोर पर स्थित मंदिर संख्या 3 में है, जिसमें मेरे विकास के सात चरण दिखाई देते है। जिनके नीचे मनौती स्तुपो की एक विशाल संख्या है।
मेरे स्थापत्य के नमूने यानी पानी की नालियाँ, दीवारों में बनी आलमारियाँ और ताखें, स्नानागार, शयनस्थल, अन्नागार, देवमंदिर, चैत्य, चिकित्सालय आदी देखकर तुम मेरे खोये प्राचीन वैभव का सहज ही अनुमान लगा सकते हो वत्स!!
मेरे उत्खनन के फलस्वरूप 13 मठ प्रकाश में आए, प्रत्येक मठ आयताकार और बहुमंजिला होता था। जिसके किनारों की ओर विद्यार्थीयों के निवास की कोठरीयाँ बनी हुई थी तथा सामने चारो तरफ से प्रस्तर स्तंभों पर टिका ढलावदार बरामदा होता था। आंगन के एक कोने में कुंआ और जलनिकासी का प्रबंध साथ ही भध्य में व्याख्यान के लिए चबुतरा तथा एक तरफ खाना बनाने के लिए भूमिगत चुल्हो की व्यवस्था थी। आज जहाँ खडंहर और झाड-झंखाड है वहाँ कभी हजारों कसायवस्त्र धारीयों का धाराप्रवाह पाठ की गुंज मुझे साफ साफ साफ सुनायी दे रही है।
और सुनो वत्स !! बाहर मेरे उत्खनन से प्राप्त विभिन्न वस्तुओं जैसे अनेकानेक मुर्तियों, सिक्के,मृदभांडों और उस भयानक अग्निकांड के सबुत जले हुए चावल के दानों इत्यादि जो संग्रहालय में रखी है, और पास ही ह्वेनसांग स्मृतिभवन भी जरूर देखना सब कुछ तुम्हारी ही तो विरासत है। संभालो इसे !!!
ज्योति कम हुई और आचार्य अंर्तेध्यान हो गये, और मैं मूक खंडहरो के मध्य अश्रुपुरित नेत्रों के साथ शांत बैठा हुआ था। मैंने भावुक होकर उन आचार्य से वादा किया पुनः आने के लिए, पुरे अधिकार के साथ जैसे कभी किसी पुर्वजन्म में इस विद्यालय का कोई विद्यार्थी रहा हूँ।
इति शुभम्
अनुराग चतुर्वेदी ⚘
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आज्ञा पत्र |
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प्रवेश द्वार पर ASI का बोर्ड |
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एक मेरा भी.. |
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UNESCO द्वारा विश्व विरासत स्थल का प्रमाण पत्र |
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विश्वविद्यालय का प्रवेश द्वार कभी भव्य रहा था। |
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प्रवेश द्वार के पास ही अन्य कोठार और अन्य भंडार गृह |
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चैत्य के विशाल धंव्साशेष और परिसर |
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मनौती स्तुपो की श्रृंखला और दुसरा चैत्य |
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सात निर्माण कालों वाला विशाल चैत्य की सीढ़ियाँ |
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मनौती स्तुप और चैत्य विहार के अवशेष |
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दूर दिखते दो साबूत बचे पुर्ण स्तंभ |
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तृतीय चैत्य के खंडहर |
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नालंदा के राजकुमार |
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टिकटघर के पास स्थित विशाल घंटा |
बहुत बढि़या लिखा आपने अनुराग जी। सारिपुत्र का का जन्म वहीं पास के ही गांव में हुआ था जिस गांव का नाम उनके ही नाम पर है और उस गांव का नाम है सरिचक। बहुत से लोगों को यही लगता है अरे इन दीवारों को देखने के लिए क्या जाना क्या है इसमें जो इसके लिए समय और धन खर्च करें। पर इनमें जो है वो आप जैसे लोग ही परख पाते हैं। इतना नजदीक से तो हमने भी आज तक महसूस नहीं किया जितना आपने। आपके लेख को पढ़कर एक बार फिर से यहां जाने की इच्छा हो रही है। पर अगली बार सपरिवार जाएंगे।
ReplyDeleteबहुत बहुत शुक्रिया अभयानंद सिन्हा जी 😊🙏,
Deleteसरिचक बताने के लिए आभार वहाँ एक ग्राम्य पर्यटन स्थल था कुम्हरार मुझे लगा शायद वहीं गांव है।
कोई भी आम आदमी ऐसा ही सोचता है, गिने चुने लोग वहाँ होते है जिनको इन दीवारों से लगाव होता है।
यहाँ इतिहास की जो महक है वो किताबों के पन्नों में कहाँ... किसी ने बिल्कुल सही कहा है की "आपका इतिहास वहीं है जिसे आप महसूस कर सकते है।"
वहाँ फिर भागमभाग ना करके तस्सली से आदित्य को सब बताइएगा और दिखाइएगा..
वाह अनुराग जी, क्या लिखा है भाई | आपका यहाँ से कुछ पुराना कनेक्शन लगता है, जिस वजह से आपको हुई अनुभूति मुझे बिल्कुल खास प्रतीत हो रही है | कहीं ये कोई पिछले जन्म का नाता तो नहीं ?
ReplyDeleteवैसे आपने लिखा कमाल का है |
बहुत शुक्रिया भाई जी आपका... अभी तो बस सीख ही रहे है जी।
ReplyDeleteमुझे भी ऐसा ही लगता है, क्योंकि यहाँ जाकर मैं, मैं नहीं रहता, पता नहीं मामला क्या है। 😊😊