Friday, November 16, 2018

नालंदा डायरी भाग ~ 6 nalanda-rajgir journey


                                                        नालंदा - राजगीर यात्रा भाग - 6

कल दिन भर की उठापटक और रातभर के धमाल के बावजूद सभी सुबह 7 बजे तक तैयार होकर ब्रैकफास्ट का इंतज़ार कर रहे थे। 8 बजे से पहले ही हम होटल नलंदा रीजेंसी से चेकआउट कर अपने रथों पर सवार मतलब की बाइकों पर जम चुके थे। लक्ष्य था तकरीबन 70km दूर गया-बोधगया की घुम्मकड़ी का..

थोड़ी देर में ही हम राजगीर शहर से बाहर थे, गर्म झरने के पास से गुजरते हुए सड़क के किनारे ही जरा राक्षसी का मंदिर है अब इसे क्यों छोड़ा जाए तो हम 2km बाद ही रूक गये, मंदिर देखने।

जरादेवी मंदिर- 
जरादेवी मंदिर गर्म क्षरने के बगल में ही स्थित है। महाभारत के समय की एक पौराणिक कथा के अनुसार मगध नरेश वृहद्रथ की दो पत्नियाँ थी मगर दोनों से एक भी संतान न थी। संतान की लालसा में राजा अपने गुरू कौशिक मुनि के आश्रम गये। मुनि ने राजा को एक आम्रफल दिया और कहा कि पत्नी को खिला देना। राजा ने आम्रफल को दो भागों में बांटकर दोनों पत्नियों को आधा-आधा भाग खिला दिया। फलस्वरूप बालक का आधा भाग एक पत्नी से तथा दूसरा भाग दूसरी पत्नी के गर्भ से पैदा हुआ। राजा ने अशुभ के भय से मृत बालक के दोनों भागों को जंगल में फेकवा दिया। उसी जंगल में जरा नाम की एक राक्षसी रहती थी। जरा की नजर जब बालक के दो टुकड़ों पर पड़ी तो जरा राक्षसी ने अपने तांत्रिक शक्ति से बालक के दोनो भागों को जोड़कर बालक को जीवित कर दिया जो जरासंध (जरा द्वारा जोड़ा गया) कहलाया। उसी समय से जरा को देवी का रूप माना जाने लगा। जरा की अष्ट मुखी प्रतिमा प्राचीन कला कौशल के रूप में गर्भगृह में है। यहाँ भी स्थानीय लोग की भरपुर आस्था है। बाद में श्रीकृष्ण, भीम और अर्जुन के साथ राजगृह आए तब एक मल्ल युद्ध के बाद भीम ने जरासंध को दो भागों में फाड़कर एक क्रुर और प्रतापी राजा का अंत किया, कहा जाता है की जरासंध ने मथुरा पर 7 बार आक्रमण किया था उसके आक्रमणों से परेशान होकर ही श्रीकृष्ण ने अपनी राजधानी द्वारका में बनायी।
सुबह-2 राक्षसी माता से सुखद यात्रा का आर्शीवाद लेकर हम आगे निकल पड़े, हम उन्ही रास्तों पर थे जहाँ कल दिन भर घुम्मकड़ी की थी। विश्व शांति स्तुप के विशाल गेट पर कुछ पल रूके तभी मेरी नजर एक बोर्ड पर चली गई, ये कैसे बच निकला था कल ?? पता नहीं इसे देखकर कितनी ही बातें याद आ गई। यह बोर्ड बता रहा था की यहाँ है..

जीवक आम्रवन- 
जीवक सम्राट बिंबिसार और अजातशत्रु का प्रसिद्ध वैद्य और आयुर्वेदाचार्य था। उस समय वह सारे भारत में प्रसिद्ध हुआ करता था। सम्राट बिंबिसार ने उसे तात्कालिक अवंति के राजा चंडप्रद्योत के पांडु रोग की चिकित्सा के लिए जीवक को भेजा था। बाद में जीवक को गौतम बुद्ध की सेवा में नियुक्त कर दिया गया, जहाँ वह बौद्ध भिक्षु बन गये, जीवक ने गौतम बुद्ध की भी चिकित्सा की थी, जीवक का आम्रवन गौतम बुद्ध को विशेष प्रिय था। जहाँ उन्होंने निवास भी किया था। फिलहाल यहाँ कुछ भवनों की नींव के अवशेष मात्र ही है।
सुबह-2 इतिहास का खुराक लेकर मेरे साथी भन्नाए हुए थे। तो हम आगे चले, अब मैंने दुबारा एक जोरदार ब्रेक लगाए, दोनों मित्रों ने मेरी जोरदार लानत-मलानत की पर मेरी नजर दुबारा एक बोर्ड पर थी कुछ अजीब सी चीज थी। अनदेखी अनजानी प्रकार की.. खैर अब तो रूकना तो बनता ही था।
 
रथ चक्का और नव उत्खनित विहार- 
जब निर्देशित जगह पर पहुँचे तो आँखे आश्चर्य से गोल हो गई, यहाँ एक दीवार की मोटी नींव से घिरा एक खाली जगह थी, जहाँ कठोर पत्थर पर एक फीट चैड़ी एवं डेढ़ फीट गहराई वाले लगभग बीस फीट लम्बाई वाले समानान्तर पथ पर रथ पहिया जैसा निशान है। नीचे का धरातल सख्त चट्टानी है, यह आश्चर्य है की यहाँ इतना भारी कौन सा रथ गुजरा होगा जिससे पत्थरों तक पर उसके पहियों का निशान बन गया। राजगृह बुद्ध की तपस्या स्थल के साथ-साथ महाभारत कालीन शहर भी है। ऐसा कहा जाता है कि भगवान श्रीकृष्ण के राजगीर आगमन के उपरान्त यह रथ चिन्ह आया। रथ चिन्ह के आसपास सोन भंडार वाली ही शंख लिपि में कुछ लिखा गया है, जिसे अभी तक नहीं पढ़ा गया है। यह निश्चय ही एक दुर्लभ स्थल है। इसके कुछ आगे ही सड़क पर मिट्टी के टीले से एक गुप्तकालीन 3-4 चौथी सदी का स्तुप मिला है जिसे हाल में उत्खनित किया गया है।

पिछले दो दिनों से खाली टुटे-फूटे ईंट और खंडहर देखकर मेरे मित्र भड़क रहे थे और और अब उनका गुस्सा कभी भी फट सकता था। तो मैंने चुपचाप आगे बढ़ने में ही भलाई समझी। आगे सड़क एक पहाड़ी दर्र से गुजर रही थी। यहाँ सभी पहाड़ियाँ तकरीबन बराबर ऊँचाई की है औसत तकरीबन 200 मीटर का होगा सबसे ऊँची जगहों पर आप 300 मीटर की ऊँचाई पर होते है। लगभग सभी पहाड़ियों पर बौद्ध और जैन मंदिर बने हुए है, हमारे सामने उदयगिरी जैन मंदिर उपर दिखाई दे रहा था। मेरे साथी लाल आँखों से मेरी तरफ देख रहे थे तो हमने सड़क से ही प्रणाम किया और आगे बढ़ चले, राजगीर की सड़क बनाने वाले को दाद देनी चाहिए यह इकलौती सड़क सभी जगहों को छूती हुई निकलती है। ऐसा पुरे भारत में शायद ही कहीं मैंने देखा हो।

इन सब के अतिरिक्त भी राजगीर में अभी दर्जनों और भी घुमने वाली जगहें है, जैसे की-
कर्णदा टैंक- जहाँ बुद्ध का निवास तथा स्नान करने की जगह है।
गर्म कुंड- अनेकों गर्म पानी के सोते जैसे सुर्य कुंड, गौरी कुंड, सीता कुंड, मखदुम कुंड, सप्तधारा, गंगा जमुना कुंड, बह्मकुंड जसका पानी सबसे गर्म 45°c है, हिंदुओं के लिए यह धार्मिक महत्व की जगह भी है।
अनेकों जैन मंदिर, जापानी बुद्ध मंदिर, लक्ष्मी नारायण मंदिर आदी

दर्रे को पार करते समय जानबुझ कर मैं पीछे हो गया, क्योंकि यहाँ पर भी राजगीर की सुरक्षात्मक साइक्लोपियन दीवार के अवशेष पहाड़ियों पर दिखाई दे रही थी। कुछ देर निहारने के बाद मैं आगे चल पड़ा गया शहर की ओर.. इस दर्रे को पर करने के बाद हम ऑफिसियल तौर पर प्राचीन राजगृह नगर से बाहर आ गये थे। अब आगे गया तक सपाट उजाड़ पहाड़ियों के साथ रास्ता है। इन्ही पहाड़ियों में गहलौर भी है शायद आपको मांझी द मांउटेन मैन फिल्म याद होगी, जहाँ दशरथ माँझी नाम के एक आम आदमी ने अपने अकेले दम पर पुरे पहाड़ी को तोड़कर एक दर्रानुमा रास्ता बना दिया था। हम इस  दशरथ मांझी के बनाए गये दर्रे से गुजरे तो सिर अदम्य हिम्मत के प्रति श्रद्धा से खुद बखुद झुक गये। अगले एक घंटे में हम गया शहर की चिल्ल पौ में उलझे हुए थे। सावन का महिना होने से कांवरियों की बहुत भीड़ भी थी। आखिरकार gps से हम विष्णुपद मंदिर का रास्ता खोजने में सफल रहे..

विष्णुपद मंदिर- 
कांवरियो की भारी भीड़ में जद्दोजहद करते आखिरकार हम इंदौर की रानी अहिल्या बाई द्नारा काले पत्थरों से निर्मित प्रसिद्ध विष्णुपद मंदिर में खड़े थे; यहाँ एक काले बेसाल्ट के पत्थर पर एक चरण चिह्न खुदा है जिसके आस पास शंख च्रक गथा आदी चिह्न बने हुए है। विश्व के सर्वाधिक झगडालू, आवारा, लालची और मूर्ख पंडे आपको यहाँ मिलेंगे। पंडो की जहालतो के बीच हमने बस हाथ जोड़े और तुरंत बाहर निकल गये, कितने ही पंडो ने जबरन दक्षिणा लेने की भी कोशिश की इंकार करने पर सैकड़ों अभिशाप भी देते है। खैर बद्दुआओं की पोटली बना कर हम मंदिर के पीछे बने फल्गु नदी के घाट पर आ गये। यहाँ घाट सीढ़ियाँ सबकुछ है सिवाय नदी के.. क्योंकि मान्यता है की सीता माता के श्राप से नदी यहाँ भूमिगत हो गई है। गया का जिक्र रामायण और महाभारत में भी किया गया, पितृपक्ष में यहाँ बड़ा मेला लगता है जिसमें पुरे देश से लोग अपने पितरों के मोक्ष के लिए पिंडदान करने आते है और पंडो की लूट का आसान शिकार बनते है।
इस शोरगुल से निकल जल्दी से हमारी बाइक बोधगया की शांति की तरफ दौड़ने लगी। बोधगया, गया से 18km की दूरी पर एक ऐतिहासिक और बौद्ध धर्म का एक प्रमुख क्षेत्र है। बोधगया की सैर अगली कड़ी में अभी..

इति शुभम्
अनुराग चतुर्वेदी ⚘












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