नालंदा-राजगीर-बोधगया यात्रा भाग - 10 अंतिम कड़ी
पिछले भाग के लिए क्लिक करें।
कितने ही दिनों से भटकते रहने से हमारा दल अब परेशान हो रहा था तो आज सुकून से देर सुबह तक सोया रहा। सुबह नास्ते के बाद हमने अपना सारा समान बांध लिया और बाइक की टंकी फूल कर ली गई। सुबह एक बार फिर हमने महाबोधी मंदिर में प्रार्थना की सुबह कुछ ज्यादा भीड़ भी नहीं थी, तकरीबन सभी पर्यटक अभी सो रहे होंगे। फिर हमने अपनी बाइक ग्रांड ट्रंक रोड़ की और दौडा दी,
एक घंटे बाद ही हम GT road पर थे फिर शेर घाटी के बंजर वीरन उजाड़ इलाके से गुजरते हुए हम औरंगाबाद की और बढ़ रहे थे जहाँ हमें आज की रात रूकना था। बोधगया से औरंगाबाद कुल 80km के लगभग दूर है। जब औरंगाबाद से 10km दूर रहे तो सड़क किनारे एक बोर्ड ने यहाँ स्थित प्राचीन सुर्य मंदिर देव के होने की सुचना दी। भारत में सुर्य के मंदिर गिने चुने ही है, देव में स्थित इस मंदिर का प्रमुख स्थान है।
देव का प्राचीन सुर्य मंदिर -
औरंगाबाद के देव मे स्थित यह मंदिर अपनी अनूठी शिल्पकला के लिए प्रख्यात है। पत्थरों को तराश कर बनाए गए इस मंदिर की नक्काशी उत्कृष्ट शिल्प कला का नमूना है। यहाँ छठ पर्व के अवसर पर भारी भीड़ उमड़ती है और लोक आस्था के लिए यहाँ विशाल मूले का आयोजन किया जाता है।
प्रचलित मान्यता के अनुसार इसका निर्माण स्वयं भगवान विश्वकर्माने किया है। इस मंदिर के बाहर संस्कृत में लिखे श्लोक के अनुसार 12 लाख 16 हजार वर्ष त्रेतायुग के गुजर जाने के बाद राजा इलापुत्र पुरूरवा ऐल ने इस सूर्य मंदिर का निर्माण प्रारम्भ करवाया था। शिलालेख से पता चलता है कि पूर्व 2017 में इस पौराणिक मंदिर के निर्माणकाल का एक लाख पचास हजार सत्तरह वर्ष पूरा हुआ। पुरातत्वविद इस मंदिर का निर्माण काल आठवीं-नौवीं सदी के बीच का मानते है।
कहा जाता है कि सूर्य मंदिर के पत्थरों में विजय चिन्ह व कलश अंकित हैं। विजय चिन्ह यह दर्शाता है कि शिल्प के कलाकार ने सूर्य मंदिर का निर्माण कर के ही शिल्प कला पर विजय प्राप्त की थी। देव सूर्य मंदिर के स्थापत्य कला के बारे में कई तरह की किंवदंतियाँ है।
मंदिर के स्थापत्य से प्रतीत होता है कि मंदिर के निर्माण में उड़िया स्वरूप नागर शैली का समायोजन किया गया है। नक्काशीदार पत्थरों को देखकर भारतीय पुरातत्व विभाग के लोग मंदिर के निर्माण में नागर एवं द्रविड़ शैली का मिश्रित प्रभाव वाली वेसर शैली का भी समन्वय बताते है।
मंदिर का शिल्प उड़ीसा के कोणार्क सूर्य मंदिर से मिलता है। देव सूर्य मंदिर दो भागों में बना है। पहला गर्भ गृह जिसके ऊपर कमल के आकार का शिखर है और शिखर के ऊपर सोने का कलश है। दूसरा भाग मुखमंडप है जिसके ऊपर पिरामिडनुमा छत और छत को सहारा देने के लिए नक्काशीदार पत्थरों का बना स्तम्भ है। तमाम हिन्दू मंदिरों के विपरीत पश्चिमाभिमुख देव सूर्य मंदिर देवार्क माना जाता है
मंदिर के प्रांगण में सात रथों से सूर्य की उत्कीर्ण प्रस्तर मूर्तियां अपने तीनों रूपों उदयाचल, मध्याचल तथा अस्ताचल के रूप में विद्यमान हैं। इसके साथ ही वहाँ अद्भुत शिल्प कला वाली दर्जनों प्रतिमाएं हैं। मंदिर में शिव के जांघ पर बैठी पार्वती की प्रतिमा है। सभी मंदिरों में शिवलिंग की पूजा की जाती है। इसलिए शिव पार्वती की यह दुर्लभ प्रतिमा श्रद्धालुओं को खासी आकर्षित करती है। इस प्राचीन मंदिर का प्रबंध देव मंदिर न्यास समिति करती है।
देव दर्शन के बाद हमें औरंगाबाद में जल संसाधन विभाग के बंगले पर जाना था, जहाँ हमें आज रूकना क्योंकि मेरे पिताजी आजकल यहीं नियुक्त है। दोपहर ढलते ही हम वहाँ पहुँच गये, विभाग के सभी कर्मचारीयों ने हमारी बाइक ट्रिप पर सराहना और आश्चर्य व्यक्त किया। यहाँ रात्री विश्राम और भोजन के बाद हमने सारे घोड़े खुले में हांक कर सो गये। सुबह हमने अपने बाइक रथ पर पुनः सवार हुए और पिताश्री से आज्ञा लेकर डेहरी ऑन सोन, विक्रमगंज, डुमरांव, भोजपुर होते हुए मेरे पैतृक घर बलिया दोपहर तक पहुँच गये। इस तरह हमारी यह नालंदा-राजगीर- बोधगया की लंबी यात्रा भूक्षेत्र पर एक बने एक बड़े से वृत पर खत्म हुई, एक बार फिर भुभाग के किसी और कोने को नापने के भावी उदेश्य के साथ।
सभी का हार्दिक धन्यवाद 🙏
इति शुभम्
अनुराग चतुर्वेदी ⚘
भाई बहुत सुंदर वर्णन किया आपने अपनी यात्राओं का, बधाई हो
ReplyDeleteधन्यवाद आभार आपका
Delete