Saturday, November 17, 2018

नालंदा डायरी भाग ~ 7 nalanda-rajgir journey

                                  
नालंदा-राजगीर-बोधगया यात्रा  भाग - 7 


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गया शहर की भीड़भाड़ से बचते बचाते अब हमारी बाइक खुली सड़कों पर दौड रही थी। बोधगया की चिरपरिचित शांति रास्ते से ही महसूस होने लगी थी। सूकून और प्रसन्नता के मारे मेरे हाथ एक्सिलेटर पर और कसते चले गये थे। मेरे अभी तक के जीवनकाल में पुरे भारत भर में देखे गये सभी स्थानों में मुझे सबसे प्रिय उत्तरकाशी और बोधगया ही है, जहाँ पहुँचते ही मैं किसी ओर ही दुनिया में पहुँच जाता हूँ।

बोधगया शहर में प्रवेश के लिए एक बहुत सुंदर गेट बना हुआ है। यहाँ भारतीय प्रबंधन संस्थान और आर्मी की छावनी भी है। बोधगया में आपको कुछ ज्यादा चिल्ल पौ नहीं मिलेगी, यहाँ की हर दुसरी ईमारत या तो कोई मठ होगा या कोई होटल या कोई योग ध्यान सिखाने वाली दुकान बिल्कुल उत्तराखंड के ऋषिकेश की तरह। जहाँ ढेरों देशी-विदेशी सैलानी भरे होते है, कई जगहों पर तो इतने विदेशी पर्यटक मिलते है की आप खुद को ही भारत से बाहर मान सकते है। हमारे पास आज का दिन, पुरी रात और कल सुबह का वक्त है, बोधगया कोई ज्यादा फैला हुआ शहर नहीं है सभी चीजें आपस में पैदल दूरी पर है। यहाँ आप किराए की साइकिल लेकर भी घूम सकते है। यहाँ मुख्यतः दर्शनीय स्थल विभिन्न देशों के वहाँ की विशेष शैली में  मठ-मंदिर, भारत की सबसे बड़ी बुद्ध प्रतिमा, महाबोधी मंदिर तथा बोधगया संग्रहालय है। साथ ही आप कई देशों के विशेष खानपान का लुत्फ भी ले सकते है। यहाँ पर पहली बार ही आने पर मेरी दोस्ती एक तिब्बती लड़की लाम़ दोरजी से हो गई थी, जो महाबोधी मंदिर के गेट के ठीक सामने तिब्बत की मशहूर डिश लैपिंग बेच रही थी। फिर मैं जब भी जाता हूँ हमारी हमेशा मुलाकात होती है। खैर अब थोड़ा बोधगया शहर के इतिहास के बारे में भी आपको बता दूँ..

बोधगया का संक्षिप्त परिचय-  
बोध गया था प्राचीन नाम उरुवेला है, बोधगया उरुवेला को बौद्ध धर्म का पालना माना जाता है। आज से लगभग 4500 वर्ष सर्वप्रथम पूर्व नव पाषाणयुगीन मानव ने उरुवेला को अपना निवास बनाया था। उरुवेला मोहना और निरंजना नदी के संगम पर स्थित है। 528 ई• पु• राजकुमार गौतम यहाँ तपस्या के लिए आए थे। तब छः महीने की कठोर तपस्या के पश्चात उनका शरीर कंकाल मात्र बचा था। तब पास के ग्राम की एक महिला सुजाता जिसने अपने मनौती के लिए क्षीरान्न अर्पित करने वहाँ आई तथा गौतम को देखकर वृक्ष देवता समझ कर खीर खाने का आग्रह किया जिसे गौतम ने स्वीकार कर लिया, इसी घटना के बाद उन्होंने तपस्या की अति छोड़ कर संसार के कल्पना के लिए मध्यम मार्ग की खोज के लिए तीन दिनों तक साधना की, छठी शताब्दी ई• पू• में बैसाख पुर्णिमा के दिन गौतम बुद्ध को इसी जगह पर पीपल के वृक्ष के नीचे ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। ज्ञान प्राप्‍ित के बाद वे अगले सात सप्‍ताह तक उरुवेला के नजदीक ही रहे और चिंतन मनन किया। इसके बाद बुद्ध वाराणसी के निकट सारनाथ गए जहां उन्‍होंने अपने ज्ञान प्राप्‍ित की घोषणा की। बुद्ध कुछ महीने बाद उरुवेला लौट गए। यहां उनके पांच मित्र अपने अनुयायियों के साथ उनसे मिलने आए और उनसे दीक्षित होने की प्रार्थना की। इन लोगों को दीक्षित करने के बाद बुद्ध राजगीर चले गए। इसके बुद्ध के उरुवेला वापस लौटने का कोई प्रमाण नहीं मिलता है। 
जिस वृक्ष के नीचे उन्हे ज्ञान की प्राप्ति हुई थी उसे बोधि वृक्ष के नाम से जाना जाता है जिसे अशोक की रानी तिस्यरक्खा तथा गौड़ के शासक शशांक ने स्थाई नुकसान पहुंचाया था। कालांतर में श्रीलंका से लाए गए बोधि वृक्ष की एक शाखा यहां लगाई गई है, वर्तमान में स्थित बोधिवृक्ष प्रारंभिक वृक्ष की पांचवी पीढ़ी का वृक्ष है। गौतम बुद्ध के ज्ञान प्राप्ति के बाद एक अनजान छोटा सा गांव बोधगया एक वैश्विक पूजनीय स्थल बन गया है। जहाँ संसार भर से बौद्ध तथा अन्य मतावलंबी आते रहते है।
तीसरी शताब्दी ई• पू• में सम्राट अशोक अपने धर्म यात्रा पर बोधगया पधारे थे, उनके द्वारा बोधि वृक्ष के पास वज्रासन मंदिर का निर्माण हुआ था। शुंग काल (दूसरी से पहली शताब्दी ई• पू•) में बोधि वृक्ष के चारों ओर प्रस्तर-वेदिका का निर्माण हुआ साथ ही एक महाविहार तथा सुजाता स्तुप का भी निर्माण हुआ।
 विश्वविख्यात महाबोधि मंदिर का निर्माण गुप्त काल (पांचवी सदी ई•) में हुआ था, इसी समय श्री लंका के राजा मेघबर्मन ने अपने भिक्षुओं के लिए बोधगया में एक बिहार की स्थापना भी की थी। करीब 100 वर्ष बाद साको नामक राजा ने मंदिर के अग्रभाग में एक मंडप जोड़कर महाबोधि मंदिर को नया रूप प्रदान किया था। 7 वीं सदी ई• में गौड़ के राजा शशांक ने बोधि वृक्ष को कटवा दिया, जिसे राजा पूर्णवर्णन में पुनर्जीवित किया था तथा मंदिर के चारों तरफ प्रस्तर-वेदिका लगवा कर इसे शोभित किया इसी समय ह्वेनसांग भी बोधगया पधारे थे।

11वीं- 12वीं सदी ई• में मंदिर के कुछ भाग नष्ट हो गए थे, जिस का संरक्षण वर्मा के राजाओं ने करवाए थे। 13वीं सदी में से बोधगया की महत्ता धीरे धीरे घटने लगी थी और 16 वीं सदी के आते आते बोधगया लगभग लुप्त सा हो गया था।
 इस सुनसान स्थल पर गोसाई घमंड गिरी नामक सन्यासी ने एक शैव मठ की स्थापना की जो कालांतर में एक शक्तिशाली मठ में तब्दील हो गया। उनके उत्तराधिकारीओं ने महाबोधि मंदिर के जीर्णोद्धार के लिए कोई प्रयास नहीं किए। 19वीं सदी ई• के आते आते मंदिर खंडहर में बदल गया। तब वर्मा के राजाओं ने इसके संरक्षण का पुनः प्रयास किए, अंत में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के प्रथम महानिदेशक सर अलेक्जेंडर कनिंघम के अथक परिश्रम से मंदिर का पूर्ण रूप से संरक्षण 1880 में हुआ।

 संरक्षित मंदिर के स्वामित्व के लिए मठ के महंत और अनागरिक धर्मपाल के नेतृत्व में बौद्धों के बीच अनेकों विवाद हुए परिणाम स्वरूप 1949 ई• में बोधगया मंदिर अधिनियम पारित हुआ और 1953 ई• में बोधगया मंदिर प्रबंधन कमेटी का गठन हुआ। तब से इसी कमेटी द्वारा मंदिर गए कार्यों का निष्पादन होता है। वर्ष 2002 ई• से महाबोधि मंदिर एक विश्व धरोहर स्मारक बन गया है, इसी वर्ष से भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण पटना अंचल इसके संरक्षण में निरंतर कार्यरत है।

यह लेख को यहीं समाप्त करता है आगे का विवरण आगे के भागों में
इति शुभम्
अनुराग चतुर्वेदी⚘








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