बरसातों में नंदनकानन की ओर... भाग ~ ५
( फूलों की घाटी )-1 24/08/2018
रात भर बारिश की तड़तड़ चलती रही थी, थकान के मारे नींद सीधे सुबह ही खुली आज हमको फूलों की घाटी जाना था, और बाहर बारिश भी चलती रही। आज कोई जल्दी नहीं थी क्योंकि फूलों की घाटी एक राष्ट्रीय उद्यान है, वहाँ जाने के लिए परमिट बनता है और परमिट ऑफिस लगभग 7 बजे ही खुलता है।
पानी में करंट था तो नहाने का सवाल ही नहीं था पर ज्योति जी पर स्वच्छता का फितूर था और मैं एक आलसी मगरमच्छ उन्होंने जीतोड़ कोशिश करी थी की मुझे नहलाया जा सके पर मैं भाग खड़ा हुआ था। नहाने से याद आया की आज जब देर रात करीब 3 बजे मुझे टाॅयलेट जाना पड़ा था तो मैं दो कंबलो को लपेट कर भी कांपता हुआ गया था, यहाँ एक बड़े से हाॅल में एक लाइन से बने टाॅयलेट्स और बाथरूम मुझे अपने इंजीनियरिंग काॅलेज के हाॅस्टल की याद दिला रहे थे। मैं वापस आने के लिए मुड़ा तभी मुझे किसी की नहाने की आवाज आयी, मेरी सिटीपिट्टी गुम हो गई थी और करंट वाले पानी की कल्पना से ही रीढ़ तक सिहरन दौड़ गई। मुझे पहाड़ो की परियाँ याद आने लगी थी, पर ये गुरूद्वारे के कोई ग्रंथी साहब थे जो सुबह की अरदास के लिए तैयार हो रहे थे। वो बस एक भगवा धोती पहने हुए थे और में जैकेट टोपी के उपर दो कंबल ओढे खड़ा था। मैं उन्हे नमस्कार किया था, उन्होंने कुछ सवाल पुछे थे फिर इससे पहले की वो मुझे भी नहाने के लिए कहते मैंने दौड़ लगा दी थी, बहुत डरावना मंजर था। खैर जब तक ज्योति जी तैयार होते नीचे लंगर में दो गिलास चाय पी चुका था।
हेमकुंड के लिए जाने वाले जत्थे जा चुके थे, मैंने कंबलों में दुबके हुए ही उनकी रावानगी के नारें सुने थे। कुछ एक यात्री अभी भी यात्रा शुरू करने वाले थे। मुझे स्काॅटलैंड से आए सरदार जी मिले जो हमारे साथ ही पुलना तक मैक्स में आए थे। उनका कहना था की वो कल शाम ही फूलों की घाटी देख आए है, पर कैसे.. कैसे..?? मेरी समझ से बाहर है। ज्योति जी भी अब तैयार होकर आ गए थे हमने अपना सामान लाॅकर रूम में रख छोड़ा क्योंकि गुरूद्वारे में रूकने के लिए आपको हर दिन नया रजिस्ट्रेशन करना होगा। गुरूद्वारे के लंगर में ही मैंने हल्का ब्रैकफास्ट भी कर लिया था, तैयार होकर जब हम बाहर आए तो कोई यात्री नजर नहीं आ रहा था। बारिश अभी भी चल ही रही थी, एक ढाबे पर हमने लंच के लिए कुछ परांठे पैक करवाने की कोशिश की क्योंकि उपर फूलों की घाटी में झरनों के पानी के सिवाय कुछ भी नहीं मिलता तो दोपहर के लिए कुछ खाना साथ रखना पड़ता है वर्ना भूखे पेट तो स्वर्ग भी डरावना ही लगता है। पर उसने अभी अपनी तंदूर भी नहीं जलाई थी तब हमने बिना लंच के ही जाने की सोची हमारे पास पर्याप्त ऊल जलूल चीजें थी, जिनसे हमारा जोरदार लंच हो सकता था। ज्योति जी के पास एक छोटा बैग था जिसमें नमकीन, पीपलकोटी में खरीदी गई सलाद की सब्जीयाँ, ढेर सारे शुद्ध घी से बने गुजराती गोंद के लड्डू, कुछ चटपटी टाॅफियाँ और चाॅकलेट। मेरे पास भी सामान का ढेर था दो कैमरे, एक छड़ी और छतरी,पर लगभग मैं खाली हाथ ही था।
बारिश के मौसम में जब आपके पास कैमरे हो तो आपके पास छतरी होनी जरूरी है,कुछ लोग मिले जिन्होंने बड़े कैमरे तो लेकर आए पर छतरी भूल बैठे और उनके कैमरे बैग में ही रखे रह गये थे। घांघरिया गुरूद्वारे से 1km दूर से फूलों की घाटी के रास्तें अलग होता है। शुरूआत से ही कुछ चढ़ाई सी है। घांघरिया के बाहर निकलने के लिए भी एक अस्तबल जैसी जगह पार करनी होती है जहाँ ढेरों घोड़े और लीद होती है। फिलहाल यहाँ सन्नाटा था, घांघरिया से बाहर निकलते ही उपर हेमकुंड से निकलती लक्ष्मणगंगा नदी एक बड़े झरने के रूप में गिरती नजर आती है और रास्ते को पार कर गुरूद्वारे के पीछे पुष्पावती नदी से संगम बनाती है। लक्ष्मणगंगा के पुल पर कुछ देर रूकने पर नीचे से एक आध लोग उपर आते नजर आए..
थोड़ी दूर उपर से बांए हाथ की तरफ का रास्ता फूलों की घाटी के लिए जाता है और सीधा रास्ता हेमकुंड साहिब के लिए। फूलों की घाटी के लिए मुड़ते ही सुदंरता का अहसास होने लगता है। हेमकुंड का जो रास्ता रूखा-सुखा सा है। यहाँ छोटे-2 पेड़ों ने रास्तों पर सुरंग सी बना रखी है, बारिश के बावजुद छतरी की आड़ में कैमरे धड़ाधड़ यादें बनाने लगे थे। अभी कुछ कदम चलने पर ही ये हाल है तो आगे ना जाने क्या मिलने वाला है। कुछ दूर चलने पर ही परमिट ऑफिस आ गया था। ये बस एक हाॅल नुमा कमरा भर था जहाँ एक खिड़की से परमिट जारी किए जा रहे थे। आस पास नियमों, फूलों की घाटी के नक्शों और फूलों की किस्मों की जानकारी देते बहुत से बोर्ड लगे है। एक बड़े से बैनर पर कुछ फूलों के फोटो सहित पहचान भी लिखी है। पास भी वनकर्मियों के लिए टीन के आर्कषक टेंटनुमा घर बने हुए है। सामने एक ऊँचा दीवारनुमा काला पहाड़ खड़ा था जिस पर जगह जगह हरियाली अटकी हुई सी थी।
मिनटों में परमिट बन जाते है प्रति व्यक्ति 150 रू लगते है जोकी तीन दिनों के लिए मान्य रहता है, शायद हजारों लोग में से इक्का दुक्का ही होते होंगे जो अगले दिन दुबारा इस परमिट का प्रयोग करते होंगे। परमिट लेने तक बारिश थोड़ी हल्की हो चली थी और 20-25 लोग भी अब नजर आने लगे थे। हमने सबसे पहले परमिट ले लिया था, इसलिए आगे चले पर कुछ दूर चलने पर ही फूलों ने रास्ता रोक लिया था। अभी फूलों की घाटी ऑफिसियली 3km दूर थी पर फूल तो हर तरफ बिखरे पड़े थे। मामूली फर्न भी बला के सुंदर लग रहे थे फूलों की संगति का असर तो होना ही था। यह समझना कठिन था की फूलों ने रास्तों पर कब्जा जमाया था कि रास्तों ने ही फूलों के इलाके में घुसपैठ की थी। फूलों की तस्वीरें निकालने के चक्कर में अब हम सबसे पीछे चलने लगे थे, आगे एक बरसात से उफनते झरनेनुमा नाले को पार करने के लिए दो बल्लियों पर एक टीन की पत्तर बिछा कर जुगाड़ का पुल बना था। सभी लोगों को इस पर तस्वीरें निकालनी ही थी, सेल्फियाँ निकाली जा रही थी। पुल पर भीड़ बढ़ गई थी, मुझे डर लग रहा था यदी कोई गलती से भी फिसला तो बिना नीचे रूकेगा नहीं, जिंदा बचने का तो सवाल ही नहीं होता।
छोटी-छोटी चढ़ाई उतराईयों के बाद अब थोड़ा बना बनाया रास्ता आ गया था। एक जगह छोटी सी खोह के पास पेंट से ब्लू पाॅपी लिखा था। सभी उस जगह पर जरूर ही झांक रहे थे। मैंने भी सोचा शायद ब्लू पाॅपी देखने को मिल जाए पर नहीं यहाँ तो कुछ भी नहीं था ब्लू पाॅपी का पौधा तक नहीं। अभी हम स्प्रूस के जंगल में चल रहे थे, सामने ही गरजती हुए पुष्पावती नदी नीचे उतर रही थी। उस पर कम से कम एक व्यवस्थित ब्रिज बना हुआ था जो की लोहे के गर्डर से बनाया गया था। यहाँ जमकर फोटोग्राफी चल रही थी, हमने भी जमकर हाथ धोए थे। नजारा ही दिलचस्प था सामने उछलते कुदते नीचे उतरती पुष्पावती और पीछे दूर तक दिखती घाटी..
पुल पार करते ही टूटे-फूटे स्लेट पत्थरों की दुनिया शुरू हो गई थी। नक्शों के हिसाब से सर्दियों में यहाँ एक ग्लेशियर सा बन जाता है जो की गर्मियों में पिघलकर फिर गायब हो जाता है। एक मोड़ बाद ही हमारा कलेजा हलक को आ गया था सामने थी एकदम उपर की जाती कितनी ही सीढ़ियाँ.. अब यहीं रास्ता था। ज्योति जी को सीढ़ियाँ देखकर ही चक्कर आ रहे थे, हम मन मार कर धीरे-2 सधे कदमों से चढ़े जा रहे थे। ज्योति जी ने कहा था की तुम आगे चाहों तो जल्दी-2 जा सकते हो मैं एकदम धीरे-धीरे चल कर आऊँगी पर आगे मेरा इंतजार करना। अब में पुरे दम से सीढ़ियाँ चढ़नी शुरू कर दी अब हमारे साथ यूथ हाॅस्टल का एक लंबा चौड़ा ग्रुप चल रहा था पर वो सभी बिखरे हुए चल रहे थे। सीढ़ियाँ.. सीढ़ियाँ और सीढ़ियाँ... चढ़ाई..चढ़ाई और चढ़ाई.. बस 3km में ही खतरनाक चढ़ाई जैसे हम छत पर जा रहे हो, मुझे सन्यारा बुग्याल के रास्ते याद आने लगे थे। जहाँ हम अंधेरे में पत्थरों पर टकराते चढ़े चले जा रहे थे। लंबे-चौडे ट्रैक इतने परेशान नहीं करते जितने की ये छोटे ट्रैक।
अब हम घने भोजवृक्षों के जंगल से गुजर रहे थे। हल्की बारिश भी आ गई थी। बादल आते और सबकुछ कोहरा से ढंक जाता, फिर तुरंत ही बादल कहीं ओर को निकल जाते। भ्यूंडार के बाद यहाँ हम वापस बाँए ओर के पहाडों पर चल रहे थे। आगे अब जंगल नहीं रहे शायद हम ट्री लाइन से उपर चले आए थे। एक खुली ऊँची जगह से हमें बादलों के बीच से हेमकुंड साहिब की हल्की झलक भी दिख रही थी। ज्योति जी का कोई अता-पता नहीं दिख रहा था, शायद वो मुझसे 1km पीछे तो जरूर होंगे। इस ऊँचे टीले पर मैं घाटी में पांव लटकाए पसर गया, सभी गुजरने वालों को लग रहा था की जैसे में नीचे कुदने जा रहा हूँ और वो मेरा हाल चाल लेना नहीं भूलते। मैं पत्थरों पर खिले छोटे-2 फूलों की तस्वीरें निकालने में लगा हुआ था। सामने जब अचानक बादल हटे तो दूर उत्तर के ढलानों पर ग्लेशियर दिखने लगे थे। मैंने जोर से चिल्ला कर सबको बताया अब ग्लेशियर देखने की भीड़ लग रही थी, मैंने भी अब आगे चलने की सोची, अब ढलान आने लगी थी आगे एक पत्थर पर फूलों की घाटी 1km दूर लिखा था। मतलब जितना चल कर आए वो बस 2km भर ही था, नहीं.. नहीं..
जल्दी अब सपाट सा रास्ता आने लगा था। अब घाटी का दूर तक खूबसूरत नजारा था कोई आधा किलोमीटर चौड़ी और तीन-चार किलोमीटर लंबी जगह ही फूलों की घाटी का कोर जोन है। दोनों तरफ हरी-भरी ढलाने दिख रही थी, उतर-पश्चिम की ढलानों या हमारे रास्ते की ओर पहाड़ों पर उपर बर्फों की दुनिया थी जो बादलों से पटी हुई थी। उनसे निकल कर सैकड़ों नाले घाटी के बीचों बीच से गुजरती पुष्पावती नदी से जा मिलते है।
दूर-दूर तक बस हरियाली और फूलों के लहलहाते खेत के खेत ही दिखाई दे रहे है। फूलों के खेत उपर पहाड़ो के बर्फों तक भी कब्जा जमाए हुए है। यहाँ से घाटी का विहंगम नजारा देखकर लोगों में दो तरह के परिवर्तन होते है या तो वो जोश से कदम बढ़ाना शुरू करते है या एकदम ठिठक कर सम्मोहित से खड़े रह जाते है। मुझे प्यास लगने लगी थी पर खाने पीने का सारा समान ज्योति जी के पास था और वो ना जाने कहाँ गुम थी। यहाँ एक झरना था जिससे मैंने अपनी प्यास बुझा ली थी। पानी पीकर सीधा मैं वैली ऑफ फ्लावर के शुरूआती प्वांइट पर ही जाकर रूका, लगातार फोटो लेने के लिए रूकने के बावजूद ज्योति जी का कोई अता पता नही था। मैं दूर चला आया था, अब मुझे उनकी चिंता होने लगी थी।
पुरी घाटी कोहरे की चपेट में थी और जोरदार बारिश होने लगी, ठंडी हवा भी चुभ रही थी। एक टीन के पत्तरो से बने पूल को पार करने के बाद एक चट्टानी गुफानुमा जगह आयी थी। यहाँ पर यूथ हाॅस्टल का ग्रुप भी रूका हुआ खाने पीने में मस्त था, बगल में ही पोर्टरों का झुंड था। उन्होंने अपनी चिलमो से माहौल गर्मा रखा था। एक खाली पत्थर पर मैंने भी आसन जमा लिया था।
बारिश कुछ देर जोरदार ढंग से चलने के बाद थोड़ी हल्की पड़ने लगी थी। करीब आधे घंटे से ज्यादा के इंतजार के बाद ज्योति जी धीरे-2 बारिश में चलती हुई आ पहुँची थी। उन्होंने आग भरी नजरों से मुझे देखा था,और मैं मस्त एक चट्टान पर आसान जमाए बैठा हुआ था। अब हम साथ-2 चल रहे थे, पर बोलचाल बंद थी मुझको अकेले छोड़कर आगे चले आने पर गुस्सा थी। खैर माफीनामे और मान मनौव्वल के बाद मामला हल हुआ, और मुझे बदले में गोंद के लड्डू और पानी को बोतल मिली। हमने फूलों के खेत के बीच एक चट्टान पर बैठकर ढेर सारे गोंद के लड्डू, ड्राई फ्रूट और चाॅकलेट निपटाए थे। हर तरफ स्वर्ग सा नजारा था, इस वक्त गुलाबी फूलों का वक्त था और हम फूलों के समुद्र में बैठे थे। पहाड़ो से सैकड़ों मनमोहक झरने गिर रहे थे, भीनी-2 फूलों की खूशबू आ रही थी। ज्योति जी ने दोनों हाथ उठाकर प्रकृति और ईश्वर से मौसम साफ करनी की प्रार्थना की... उनकी प्रार्थना जल्दी ही रंग लायी और आधे घंटे में मौसम एकदम साफ सा हो चला था, एक पल के लिए हल्की झलक धूप की भी दिखाई दे गई।
अब हमारे पास फोटोग्राफी का मौका था, दर्जनों कैमरे निकल आए थे, सभी खुशी से चहक रहे थे। फूलों की घाटी एक जीता जागता स्वर्ग है, जरूर ही यहाँ रात को सोम के प्याले लिए परियाँ या आक्षरियाँ आती होंगी, इतनी सुंदर जगह पर रात भर गीत गाती होंगी और नाचती होंगी। इतनी खूबसुरती भी धरती पर हो सकती है, लाजवाब लगभग सभी के मुँह खुले के खुले है। चमकदार हरियाली और रंग बिरंगे फूलों के खेत उनके बीच से गुजरते शीशे से पानी के सोते, दुधिया झरने और नीचे मचलती उझलती पुष्पावती नदी। नजारों को अपनी आँखों से पीते और हर कदम तस्वीरें लेकर एक चिरस्मृति बनाने की कोशिश थी। लेगी ग्रेव से कुछ दूरी पर जब हम हवा में लहराते लंबे फर्न की पत्तियों के खेत से गुजरते हुए जब विडियों बना रहे थे तभी मौसम ने अपनी सौगात वापस ले ली, हर तरफ घना कोहरा और बादल छा गये।
कुछ दूर सामने टीपरा खर्क (ग्लेशियर) से निकलती पुष्पावती नदी दिख रही थी। मौसम खराब होते ही युथ हाॅस्टल वाला दल कब का वापस जा चुका था, हम एक जगह चुपचाप बैठे प्रकृति का नजारा ले रहे थे। धीरे-2 सभी वापसी के लिए जाने लगे और हम तकरीबन बिल्कुल अकेले ही रह गये थे। थोड़ी देर में मौसम और खराब हो चला था। और घना कुहरा छा गया। दोपहर भी अब ढलने लगी थी और मौसम की बेरूखी को देखते हुए नदी के शुरूआती छोर की ओर जाने का विचार छोड़ कर अब वापसी की ओर चलने का इरादा किया। रास्ते में इंदिरा गाँधी के नाम का प्रियदर्शनी झरना भी मिला। अब भूख लग रही थी तो किसी चट्टानी आड़ की तलाश थी।
जल्दी ही हम वापस उसी चट्टानी गुफा के पास आ गये थे, मैंने पास के झरनों से बोतलों में पानी भर लाया। अब हमने गोंद के लड्डू खाते हुए, टमाटर-खीरे-धनिए के टुकड़े कर लिए, चटपटी नमकीन में मिलाकर मजेदार भेल बनाई गई। फूलों की घाटी को निहारते खुद से बनाई भेल का आनंद अप्रितम था। एक खूबसूरत याद.. भेल के बाद चाॅकलेट खाई गयी, फूलों की घाटी को सेलीब्रेट किया गया ज्योति जी का सपना पुरा हो गया था। धीरे-2 हम वापसी की ओर चलने लगे थे, ढलान पर अक्सर मुझे तेज जाॅगिग करते हुए उतरने की आदत है, ज्योति जी को घुटने में कुछ दिक्कत आ रही थी तो उन्होंने मुझे साथ ही चलने को कहा। दूर सामने के पहाड़ पर हेमकुंड से उतरते यात्री भी दिखाई दे रहे थे। सीढ़ियों पर उतरने पर उनके घुटनों पर जोर पड़ रहा था तो उनको सहारे से उतरना पड़ रहा था। दो घंटों तक यूँ ही धीरे धीरे उतरते हुए अब हम नीचे पुष्पावती नदी तक उतर आए.. हम लगभग सबसे पीछे आ रहे थे। पुल पार करने के बाद एक बार फिर फूलों वालें रास्ते आ गये थे। कैमरें अपनी आखिरी साँसे ले रहे थे, फोटोग्राफी करते हुए हम लगातार उतरते जा रहे थे।
बल्लियों के पुल वाले नाले पर मैंने पैर पानी में डाल आराम करना चाहा था पर पानी का जोरदार करंट लगा तो उझल पड़ा। ऑफिस पार कर अब सामने मुख्य रास्ते से घांघरिया दिखने लगा। घोड़े की लीद वाला इलाका पार कर हम एक नास्ते की दुकान पर धड़ाम हो गये। मैग्गी और काॅफी के बाद ज्योति ने धमाका किया की कल वो हेमकुंड नहीं जाएगी और मुझको अकेले ही जाना होगा। कारण था आज की खतरनाक सीढीयाँ जिन्होंने उनके घुटने पर जोरदार असर डाला था। दो दिन से लगातार बारिश, झरने बने रास्तों और भीगे जुतों से हमारे पैरों की हालत भी खराब हो गई थी। डस्टिंग पाउडर भी बिल्कुल बेअसर साबित हो रहे थे।
धीमे-2 गुरूद्वारे तक आए बारिश भी रवानी पर आ चुकी थी, आज हमारे कमरे सबसे उपर के तल पर थे जहाँ से दूर तक नजारा था।थकान के मारे बाहर खाने जाने की कोई इच्छा नहीं थी गोंद के बचे खूचे लड्डूओं को ठिकाने लगाने के बाद अब फिर कंबलों के ढेर में खुद को लपेट लिया था। ज्योती जी अपने घुटनों के दर्द से परेशान थी और कल मुझे अकेले ही हेमकुंड ट्रैक कम्पलीट करना ही था। फूलों की घाटी की विस्तृत जानकारी अगले भाग में..
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इति शुभम्
अनुराग चतुर्वेदी⚘
( फूलों की घाटी )-1 24/08/2018
रात भर बारिश की तड़तड़ चलती रही थी, थकान के मारे नींद सीधे सुबह ही खुली आज हमको फूलों की घाटी जाना था, और बाहर बारिश भी चलती रही। आज कोई जल्दी नहीं थी क्योंकि फूलों की घाटी एक राष्ट्रीय उद्यान है, वहाँ जाने के लिए परमिट बनता है और परमिट ऑफिस लगभग 7 बजे ही खुलता है।
पानी में करंट था तो नहाने का सवाल ही नहीं था पर ज्योति जी पर स्वच्छता का फितूर था और मैं एक आलसी मगरमच्छ उन्होंने जीतोड़ कोशिश करी थी की मुझे नहलाया जा सके पर मैं भाग खड़ा हुआ था। नहाने से याद आया की आज जब देर रात करीब 3 बजे मुझे टाॅयलेट जाना पड़ा था तो मैं दो कंबलो को लपेट कर भी कांपता हुआ गया था, यहाँ एक बड़े से हाॅल में एक लाइन से बने टाॅयलेट्स और बाथरूम मुझे अपने इंजीनियरिंग काॅलेज के हाॅस्टल की याद दिला रहे थे। मैं वापस आने के लिए मुड़ा तभी मुझे किसी की नहाने की आवाज आयी, मेरी सिटीपिट्टी गुम हो गई थी और करंट वाले पानी की कल्पना से ही रीढ़ तक सिहरन दौड़ गई। मुझे पहाड़ो की परियाँ याद आने लगी थी, पर ये गुरूद्वारे के कोई ग्रंथी साहब थे जो सुबह की अरदास के लिए तैयार हो रहे थे। वो बस एक भगवा धोती पहने हुए थे और में जैकेट टोपी के उपर दो कंबल ओढे खड़ा था। मैं उन्हे नमस्कार किया था, उन्होंने कुछ सवाल पुछे थे फिर इससे पहले की वो मुझे भी नहाने के लिए कहते मैंने दौड़ लगा दी थी, बहुत डरावना मंजर था। खैर जब तक ज्योति जी तैयार होते नीचे लंगर में दो गिलास चाय पी चुका था।
हेमकुंड के लिए जाने वाले जत्थे जा चुके थे, मैंने कंबलों में दुबके हुए ही उनकी रावानगी के नारें सुने थे। कुछ एक यात्री अभी भी यात्रा शुरू करने वाले थे। मुझे स्काॅटलैंड से आए सरदार जी मिले जो हमारे साथ ही पुलना तक मैक्स में आए थे। उनका कहना था की वो कल शाम ही फूलों की घाटी देख आए है, पर कैसे.. कैसे..?? मेरी समझ से बाहर है। ज्योति जी भी अब तैयार होकर आ गए थे हमने अपना सामान लाॅकर रूम में रख छोड़ा क्योंकि गुरूद्वारे में रूकने के लिए आपको हर दिन नया रजिस्ट्रेशन करना होगा। गुरूद्वारे के लंगर में ही मैंने हल्का ब्रैकफास्ट भी कर लिया था, तैयार होकर जब हम बाहर आए तो कोई यात्री नजर नहीं आ रहा था। बारिश अभी भी चल ही रही थी, एक ढाबे पर हमने लंच के लिए कुछ परांठे पैक करवाने की कोशिश की क्योंकि उपर फूलों की घाटी में झरनों के पानी के सिवाय कुछ भी नहीं मिलता तो दोपहर के लिए कुछ खाना साथ रखना पड़ता है वर्ना भूखे पेट तो स्वर्ग भी डरावना ही लगता है। पर उसने अभी अपनी तंदूर भी नहीं जलाई थी तब हमने बिना लंच के ही जाने की सोची हमारे पास पर्याप्त ऊल जलूल चीजें थी, जिनसे हमारा जोरदार लंच हो सकता था। ज्योति जी के पास एक छोटा बैग था जिसमें नमकीन, पीपलकोटी में खरीदी गई सलाद की सब्जीयाँ, ढेर सारे शुद्ध घी से बने गुजराती गोंद के लड्डू, कुछ चटपटी टाॅफियाँ और चाॅकलेट। मेरे पास भी सामान का ढेर था दो कैमरे, एक छड़ी और छतरी,पर लगभग मैं खाली हाथ ही था।
बारिश के मौसम में जब आपके पास कैमरे हो तो आपके पास छतरी होनी जरूरी है,कुछ लोग मिले जिन्होंने बड़े कैमरे तो लेकर आए पर छतरी भूल बैठे और उनके कैमरे बैग में ही रखे रह गये थे। घांघरिया गुरूद्वारे से 1km दूर से फूलों की घाटी के रास्तें अलग होता है। शुरूआत से ही कुछ चढ़ाई सी है। घांघरिया के बाहर निकलने के लिए भी एक अस्तबल जैसी जगह पार करनी होती है जहाँ ढेरों घोड़े और लीद होती है। फिलहाल यहाँ सन्नाटा था, घांघरिया से बाहर निकलते ही उपर हेमकुंड से निकलती लक्ष्मणगंगा नदी एक बड़े झरने के रूप में गिरती नजर आती है और रास्ते को पार कर गुरूद्वारे के पीछे पुष्पावती नदी से संगम बनाती है। लक्ष्मणगंगा के पुल पर कुछ देर रूकने पर नीचे से एक आध लोग उपर आते नजर आए..
थोड़ी दूर उपर से बांए हाथ की तरफ का रास्ता फूलों की घाटी के लिए जाता है और सीधा रास्ता हेमकुंड साहिब के लिए। फूलों की घाटी के लिए मुड़ते ही सुदंरता का अहसास होने लगता है। हेमकुंड का जो रास्ता रूखा-सुखा सा है। यहाँ छोटे-2 पेड़ों ने रास्तों पर सुरंग सी बना रखी है, बारिश के बावजुद छतरी की आड़ में कैमरे धड़ाधड़ यादें बनाने लगे थे। अभी कुछ कदम चलने पर ही ये हाल है तो आगे ना जाने क्या मिलने वाला है। कुछ दूर चलने पर ही परमिट ऑफिस आ गया था। ये बस एक हाॅल नुमा कमरा भर था जहाँ एक खिड़की से परमिट जारी किए जा रहे थे। आस पास नियमों, फूलों की घाटी के नक्शों और फूलों की किस्मों की जानकारी देते बहुत से बोर्ड लगे है। एक बड़े से बैनर पर कुछ फूलों के फोटो सहित पहचान भी लिखी है। पास भी वनकर्मियों के लिए टीन के आर्कषक टेंटनुमा घर बने हुए है। सामने एक ऊँचा दीवारनुमा काला पहाड़ खड़ा था जिस पर जगह जगह हरियाली अटकी हुई सी थी।
मिनटों में परमिट बन जाते है प्रति व्यक्ति 150 रू लगते है जोकी तीन दिनों के लिए मान्य रहता है, शायद हजारों लोग में से इक्का दुक्का ही होते होंगे जो अगले दिन दुबारा इस परमिट का प्रयोग करते होंगे। परमिट लेने तक बारिश थोड़ी हल्की हो चली थी और 20-25 लोग भी अब नजर आने लगे थे। हमने सबसे पहले परमिट ले लिया था, इसलिए आगे चले पर कुछ दूर चलने पर ही फूलों ने रास्ता रोक लिया था। अभी फूलों की घाटी ऑफिसियली 3km दूर थी पर फूल तो हर तरफ बिखरे पड़े थे। मामूली फर्न भी बला के सुंदर लग रहे थे फूलों की संगति का असर तो होना ही था। यह समझना कठिन था की फूलों ने रास्तों पर कब्जा जमाया था कि रास्तों ने ही फूलों के इलाके में घुसपैठ की थी। फूलों की तस्वीरें निकालने के चक्कर में अब हम सबसे पीछे चलने लगे थे, आगे एक बरसात से उफनते झरनेनुमा नाले को पार करने के लिए दो बल्लियों पर एक टीन की पत्तर बिछा कर जुगाड़ का पुल बना था। सभी लोगों को इस पर तस्वीरें निकालनी ही थी, सेल्फियाँ निकाली जा रही थी। पुल पर भीड़ बढ़ गई थी, मुझे डर लग रहा था यदी कोई गलती से भी फिसला तो बिना नीचे रूकेगा नहीं, जिंदा बचने का तो सवाल ही नहीं होता।
छोटी-छोटी चढ़ाई उतराईयों के बाद अब थोड़ा बना बनाया रास्ता आ गया था। एक जगह छोटी सी खोह के पास पेंट से ब्लू पाॅपी लिखा था। सभी उस जगह पर जरूर ही झांक रहे थे। मैंने भी सोचा शायद ब्लू पाॅपी देखने को मिल जाए पर नहीं यहाँ तो कुछ भी नहीं था ब्लू पाॅपी का पौधा तक नहीं। अभी हम स्प्रूस के जंगल में चल रहे थे, सामने ही गरजती हुए पुष्पावती नदी नीचे उतर रही थी। उस पर कम से कम एक व्यवस्थित ब्रिज बना हुआ था जो की लोहे के गर्डर से बनाया गया था। यहाँ जमकर फोटोग्राफी चल रही थी, हमने भी जमकर हाथ धोए थे। नजारा ही दिलचस्प था सामने उछलते कुदते नीचे उतरती पुष्पावती और पीछे दूर तक दिखती घाटी..
पुल पार करते ही टूटे-फूटे स्लेट पत्थरों की दुनिया शुरू हो गई थी। नक्शों के हिसाब से सर्दियों में यहाँ एक ग्लेशियर सा बन जाता है जो की गर्मियों में पिघलकर फिर गायब हो जाता है। एक मोड़ बाद ही हमारा कलेजा हलक को आ गया था सामने थी एकदम उपर की जाती कितनी ही सीढ़ियाँ.. अब यहीं रास्ता था। ज्योति जी को सीढ़ियाँ देखकर ही चक्कर आ रहे थे, हम मन मार कर धीरे-2 सधे कदमों से चढ़े जा रहे थे। ज्योति जी ने कहा था की तुम आगे चाहों तो जल्दी-2 जा सकते हो मैं एकदम धीरे-धीरे चल कर आऊँगी पर आगे मेरा इंतजार करना। अब में पुरे दम से सीढ़ियाँ चढ़नी शुरू कर दी अब हमारे साथ यूथ हाॅस्टल का एक लंबा चौड़ा ग्रुप चल रहा था पर वो सभी बिखरे हुए चल रहे थे। सीढ़ियाँ.. सीढ़ियाँ और सीढ़ियाँ... चढ़ाई..चढ़ाई और चढ़ाई.. बस 3km में ही खतरनाक चढ़ाई जैसे हम छत पर जा रहे हो, मुझे सन्यारा बुग्याल के रास्ते याद आने लगे थे। जहाँ हम अंधेरे में पत्थरों पर टकराते चढ़े चले जा रहे थे। लंबे-चौडे ट्रैक इतने परेशान नहीं करते जितने की ये छोटे ट्रैक।
अब हम घने भोजवृक्षों के जंगल से गुजर रहे थे। हल्की बारिश भी आ गई थी। बादल आते और सबकुछ कोहरा से ढंक जाता, फिर तुरंत ही बादल कहीं ओर को निकल जाते। भ्यूंडार के बाद यहाँ हम वापस बाँए ओर के पहाडों पर चल रहे थे। आगे अब जंगल नहीं रहे शायद हम ट्री लाइन से उपर चले आए थे। एक खुली ऊँची जगह से हमें बादलों के बीच से हेमकुंड साहिब की हल्की झलक भी दिख रही थी। ज्योति जी का कोई अता-पता नहीं दिख रहा था, शायद वो मुझसे 1km पीछे तो जरूर होंगे। इस ऊँचे टीले पर मैं घाटी में पांव लटकाए पसर गया, सभी गुजरने वालों को लग रहा था की जैसे में नीचे कुदने जा रहा हूँ और वो मेरा हाल चाल लेना नहीं भूलते। मैं पत्थरों पर खिले छोटे-2 फूलों की तस्वीरें निकालने में लगा हुआ था। सामने जब अचानक बादल हटे तो दूर उत्तर के ढलानों पर ग्लेशियर दिखने लगे थे। मैंने जोर से चिल्ला कर सबको बताया अब ग्लेशियर देखने की भीड़ लग रही थी, मैंने भी अब आगे चलने की सोची, अब ढलान आने लगी थी आगे एक पत्थर पर फूलों की घाटी 1km दूर लिखा था। मतलब जितना चल कर आए वो बस 2km भर ही था, नहीं.. नहीं..
जल्दी अब सपाट सा रास्ता आने लगा था। अब घाटी का दूर तक खूबसूरत नजारा था कोई आधा किलोमीटर चौड़ी और तीन-चार किलोमीटर लंबी जगह ही फूलों की घाटी का कोर जोन है। दोनों तरफ हरी-भरी ढलाने दिख रही थी, उतर-पश्चिम की ढलानों या हमारे रास्ते की ओर पहाड़ों पर उपर बर्फों की दुनिया थी जो बादलों से पटी हुई थी। उनसे निकल कर सैकड़ों नाले घाटी के बीचों बीच से गुजरती पुष्पावती नदी से जा मिलते है।
दूर-दूर तक बस हरियाली और फूलों के लहलहाते खेत के खेत ही दिखाई दे रहे है। फूलों के खेत उपर पहाड़ो के बर्फों तक भी कब्जा जमाए हुए है। यहाँ से घाटी का विहंगम नजारा देखकर लोगों में दो तरह के परिवर्तन होते है या तो वो जोश से कदम बढ़ाना शुरू करते है या एकदम ठिठक कर सम्मोहित से खड़े रह जाते है। मुझे प्यास लगने लगी थी पर खाने पीने का सारा समान ज्योति जी के पास था और वो ना जाने कहाँ गुम थी। यहाँ एक झरना था जिससे मैंने अपनी प्यास बुझा ली थी। पानी पीकर सीधा मैं वैली ऑफ फ्लावर के शुरूआती प्वांइट पर ही जाकर रूका, लगातार फोटो लेने के लिए रूकने के बावजूद ज्योति जी का कोई अता पता नही था। मैं दूर चला आया था, अब मुझे उनकी चिंता होने लगी थी।
पुरी घाटी कोहरे की चपेट में थी और जोरदार बारिश होने लगी, ठंडी हवा भी चुभ रही थी। एक टीन के पत्तरो से बने पूल को पार करने के बाद एक चट्टानी गुफानुमा जगह आयी थी। यहाँ पर यूथ हाॅस्टल का ग्रुप भी रूका हुआ खाने पीने में मस्त था, बगल में ही पोर्टरों का झुंड था। उन्होंने अपनी चिलमो से माहौल गर्मा रखा था। एक खाली पत्थर पर मैंने भी आसन जमा लिया था।
बारिश कुछ देर जोरदार ढंग से चलने के बाद थोड़ी हल्की पड़ने लगी थी। करीब आधे घंटे से ज्यादा के इंतजार के बाद ज्योति जी धीरे-2 बारिश में चलती हुई आ पहुँची थी। उन्होंने आग भरी नजरों से मुझे देखा था,और मैं मस्त एक चट्टान पर आसान जमाए बैठा हुआ था। अब हम साथ-2 चल रहे थे, पर बोलचाल बंद थी मुझको अकेले छोड़कर आगे चले आने पर गुस्सा थी। खैर माफीनामे और मान मनौव्वल के बाद मामला हल हुआ, और मुझे बदले में गोंद के लड्डू और पानी को बोतल मिली। हमने फूलों के खेत के बीच एक चट्टान पर बैठकर ढेर सारे गोंद के लड्डू, ड्राई फ्रूट और चाॅकलेट निपटाए थे। हर तरफ स्वर्ग सा नजारा था, इस वक्त गुलाबी फूलों का वक्त था और हम फूलों के समुद्र में बैठे थे। पहाड़ो से सैकड़ों मनमोहक झरने गिर रहे थे, भीनी-2 फूलों की खूशबू आ रही थी। ज्योति जी ने दोनों हाथ उठाकर प्रकृति और ईश्वर से मौसम साफ करनी की प्रार्थना की... उनकी प्रार्थना जल्दी ही रंग लायी और आधे घंटे में मौसम एकदम साफ सा हो चला था, एक पल के लिए हल्की झलक धूप की भी दिखाई दे गई।
अब हमारे पास फोटोग्राफी का मौका था, दर्जनों कैमरे निकल आए थे, सभी खुशी से चहक रहे थे। फूलों की घाटी एक जीता जागता स्वर्ग है, जरूर ही यहाँ रात को सोम के प्याले लिए परियाँ या आक्षरियाँ आती होंगी, इतनी सुंदर जगह पर रात भर गीत गाती होंगी और नाचती होंगी। इतनी खूबसुरती भी धरती पर हो सकती है, लाजवाब लगभग सभी के मुँह खुले के खुले है। चमकदार हरियाली और रंग बिरंगे फूलों के खेत उनके बीच से गुजरते शीशे से पानी के सोते, दुधिया झरने और नीचे मचलती उझलती पुष्पावती नदी। नजारों को अपनी आँखों से पीते और हर कदम तस्वीरें लेकर एक चिरस्मृति बनाने की कोशिश थी। लेगी ग्रेव से कुछ दूरी पर जब हम हवा में लहराते लंबे फर्न की पत्तियों के खेत से गुजरते हुए जब विडियों बना रहे थे तभी मौसम ने अपनी सौगात वापस ले ली, हर तरफ घना कोहरा और बादल छा गये।
कुछ दूर सामने टीपरा खर्क (ग्लेशियर) से निकलती पुष्पावती नदी दिख रही थी। मौसम खराब होते ही युथ हाॅस्टल वाला दल कब का वापस जा चुका था, हम एक जगह चुपचाप बैठे प्रकृति का नजारा ले रहे थे। धीरे-2 सभी वापसी के लिए जाने लगे और हम तकरीबन बिल्कुल अकेले ही रह गये थे। थोड़ी देर में मौसम और खराब हो चला था। और घना कुहरा छा गया। दोपहर भी अब ढलने लगी थी और मौसम की बेरूखी को देखते हुए नदी के शुरूआती छोर की ओर जाने का विचार छोड़ कर अब वापसी की ओर चलने का इरादा किया। रास्ते में इंदिरा गाँधी के नाम का प्रियदर्शनी झरना भी मिला। अब भूख लग रही थी तो किसी चट्टानी आड़ की तलाश थी।
जल्दी ही हम वापस उसी चट्टानी गुफा के पास आ गये थे, मैंने पास के झरनों से बोतलों में पानी भर लाया। अब हमने गोंद के लड्डू खाते हुए, टमाटर-खीरे-धनिए के टुकड़े कर लिए, चटपटी नमकीन में मिलाकर मजेदार भेल बनाई गई। फूलों की घाटी को निहारते खुद से बनाई भेल का आनंद अप्रितम था। एक खूबसूरत याद.. भेल के बाद चाॅकलेट खाई गयी, फूलों की घाटी को सेलीब्रेट किया गया ज्योति जी का सपना पुरा हो गया था। धीरे-2 हम वापसी की ओर चलने लगे थे, ढलान पर अक्सर मुझे तेज जाॅगिग करते हुए उतरने की आदत है, ज्योति जी को घुटने में कुछ दिक्कत आ रही थी तो उन्होंने मुझे साथ ही चलने को कहा। दूर सामने के पहाड़ पर हेमकुंड से उतरते यात्री भी दिखाई दे रहे थे। सीढ़ियों पर उतरने पर उनके घुटनों पर जोर पड़ रहा था तो उनको सहारे से उतरना पड़ रहा था। दो घंटों तक यूँ ही धीरे धीरे उतरते हुए अब हम नीचे पुष्पावती नदी तक उतर आए.. हम लगभग सबसे पीछे आ रहे थे। पुल पार करने के बाद एक बार फिर फूलों वालें रास्ते आ गये थे। कैमरें अपनी आखिरी साँसे ले रहे थे, फोटोग्राफी करते हुए हम लगातार उतरते जा रहे थे।
बल्लियों के पुल वाले नाले पर मैंने पैर पानी में डाल आराम करना चाहा था पर पानी का जोरदार करंट लगा तो उझल पड़ा। ऑफिस पार कर अब सामने मुख्य रास्ते से घांघरिया दिखने लगा। घोड़े की लीद वाला इलाका पार कर हम एक नास्ते की दुकान पर धड़ाम हो गये। मैग्गी और काॅफी के बाद ज्योति ने धमाका किया की कल वो हेमकुंड नहीं जाएगी और मुझको अकेले ही जाना होगा। कारण था आज की खतरनाक सीढीयाँ जिन्होंने उनके घुटने पर जोरदार असर डाला था। दो दिन से लगातार बारिश, झरने बने रास्तों और भीगे जुतों से हमारे पैरों की हालत भी खराब हो गई थी। डस्टिंग पाउडर भी बिल्कुल बेअसर साबित हो रहे थे।
धीमे-2 गुरूद्वारे तक आए बारिश भी रवानी पर आ चुकी थी, आज हमारे कमरे सबसे उपर के तल पर थे जहाँ से दूर तक नजारा था।थकान के मारे बाहर खाने जाने की कोई इच्छा नहीं थी गोंद के बचे खूचे लड्डूओं को ठिकाने लगाने के बाद अब फिर कंबलों के ढेर में खुद को लपेट लिया था। ज्योती जी अपने घुटनों के दर्द से परेशान थी और कल मुझे अकेले ही हेमकुंड ट्रैक कम्पलीट करना ही था। फूलों की घाटी की विस्तृत जानकारी अगले भाग में..
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इति शुभम्
अनुराग चतुर्वेदी⚘
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अलकापुरी में ! |
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नीचे दूर घांघरिया और घाटी के नजारें |
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अलग होता रास्ता, सीधे हेमकुंड साहिब तक झरने के रूप में गिरती लक्ष्मण गंगा |
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जोरदार आगाज, सुंदर सा दरवाजा जन्नत का |
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परमिट ऑफिस का बोर्ड |
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फूलों की घाटी का नक्शा |
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फूलों और उनके खिलने के बाबत जानकारी देता बोर्ड |
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परमिट ऑफिस |
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परमिट के साथ |
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घाटी का प्रवेश द्वार परमिट ऑफिस से |
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वनकर्मियों के टेंट |
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पहले फूल |
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हिलता डुलता कामचलाऊ पुल |
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फोटो भी जरूरी है |
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रास्ते ऐसे हो तो भला थकान कैसे होगी |
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लंबा चौडा मोटा पेड़, ऊँचा भी पता नहीं कहाँ तक |
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पुष्पावती का खुबसुरत नजारा और आखिरी पुल |
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रौद्र रूप में पुष्पावती नदी, बांये किनारे जाता ट्रैकिग रूट |
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चढ़ाई चढ़ाई और भोजवृक्ष के जंगल |
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सीढ़ियाँ.. ही सीढ़ियाँ |
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भोजवृक्ष और भोजपत्र |
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जानलेवा सीढियाँ |
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टुटे फूटे रास्तें |
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मन किया खा लूँ, क्या पता जहरीली हो !! |
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डांडे से गुजरता रास्ता यहाँ से हेमकुंड का गेट भी दिखता है। |
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पहली झलक |
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बररूए जमीं अस्त, घाटी के बीचों बीच पुष्पावती |
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एक हमारी भी.. |
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अब बस.. चढ़ाई खत्म..हासस.. |
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फूलों की घाटी तक समतल रास्ता |
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कलकल बहते झरने |
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आखिरकार.. खुंट खाल का भी रास्ता |
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जुगाड़ वाले हिलते डुलते पुल और लहराते झरने |
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खुबसुरत घाटी, अनगिनत झरने और गुजरता रास्ता |
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फूलों के लोक में गहरे धंसे रास्ते |
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नीचे उतरते बादल और फूलों का समुद्र |
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निःशब्द |
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खुशकिस्मत लैगी |
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फूलों की लहरों पर ज्योति जी |
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प्रियदर्शनी नाला, डर नहीं लगता साब.. बस जिकुड़ी में झस होता है। |
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आसमान का तारा हूँ... |
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ओ भैजी.. यहाँ से तो नदी निकलती है। |
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खुद ही देख लिजिए फूलों की दादागिरी |
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ज्योति जी और झरने में वाले पुल |
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हरियाली और रास्ता, नदी घाटी की ओर.. |
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कल कल बहते झरने और.. झरनों के बीच अपनी झांकी |
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बादलों का दुबारा आक्रमण |
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लंच में चाॅकलेट भेल |
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फूलों की घाटी में.. इससे बेहतर क्या बस एक कप काॅफी मिल जाती। |
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कोई छोटे अनार नही.. जंगली गुलाब के बीज है। |
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वापसी की ओर |
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करंट वाला पानी, इसके बाद कथकली की थी। |
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जब पलट कर पीछे देखते है!! |
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बादलों में टीपरा ग्लेशियर की झलक और पुष्पावती नदी का उद्गम |
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काॅफी पर पैरों की चर्चा |
लाजबाब लेखनी और शानदार फ़ोटो। मैं कब जाऊंगा पता नहीं।
ReplyDeleteबहुत आभार चंल्रेश भईया.. जल्दी ही चलेंगे कहिए तो सबको लपेट कर साथ ही चला जाए तो आनंद आ जाएगा। 😍🤗
Deleteबहुत अच्छी तरह से एक्सप्लेन किया...शानदार...
ReplyDeleteबहुत शुक्रिया.. जी 🙏🙏
Deleteवाह, जनाब वाह।
ReplyDeleteबहुत शुक्रिया..जी 🙏🙏
Deleteफूलों की घाटी न जाकर ऑफ़सोस हुआ लेकिन ज्योति ने सही बोला फूलों की घाटी चले जाओ य्या हेमकुंड! इसलिए मैं हेमकुंड चली गई 😂😂😂 तुम पुष्पावती नदी बोल रहे हो लेकिन मुझे किसी ने उसे हिमगंगा नदी बताया था।
ReplyDeleteवो अनार जैसे फूल अच्छा हुआ जो तुमने नही खाये अनुराग ,क्योकि वो सचमुच ही जहरीले थे ,मैंने भी तोड़ लिए थे लेकिन मेरे घोड़े वाले ने फिकवा दिए थे😁
गोविंद घाट को ही धंधरिया कहते है मालूम नही था। बड़ा कन्फ्यूजन हैं गोविंद धाम ओर गोविंद घाट में😂😂😂
बुआ जी, दोनों ही जबरदस्त है, दोनों का ही अपना मजा है। आप तीर्थयात्रीयों के साथ थे इसलिए आपने हेमकुंड चुना। फिर आपकी हिम्मत तो माशाल्लाह..🙏👌
Deleteपुष्पावती ही नाम मिला मुझे बाकी नाम में क्या रखा..भला ! वैसे आप यादास्त पर जो र डालिए लक्ष्मणगंगा बताया होगा जो हेमकुंड से निकलती है। बहुत झोल है बुआ गोविंदघाट और गोविंदधाम(घांघरिया) में..😂😂😃
क्या कहुँ अनुज फूलों की महक यहाँ तक आ रही है और ज्योति जी के बनाये गोंद के लड्डू और बंबईया भेल के चटपटा स्वाद का रसास्वादन हम भी कर रहें हैं। बादलों के छपने के बाद का नजारा क्या होता है ये मैने 2017 अगस्त की तुंगनाथ चँद्रशिला यात्रा के दौरान पूरी सिद्दत से महसूस किया था। सौजन्य महादेव।
ReplyDeleteजिस तरह ज्योति जी के आग भरे नजरो का सामना तुमने किया वैसे ही महादेव के तीसरे नेत्र के दावानल से मै बालबाल बचा था अपनी 2018 के मद्महेश्वर नाथ जी के यात्रा मे वापसी के समय। सौजन्य महादेव 😀😀😀😀
पर, यह आगे भी होगा रुद्रनाथ जी के ट्रैक पर। सौजन्य नींद बाले बाबा ।😀😀😀😀😀
लहर सिथ रही तो रूद्रनाथ में महादेव का सामना साथ किया जाएगा.. 😂😃
Deleteबादलों-बादलों में पुरी यात्रा गुजरी.. ज्योति जी के गोंद के लड्डू लाजवाब रहे। भेल तो नया ही आविष्कार था.. 😎
काश आप साथ होते
ReplyDeleteअनुज।
😎😎😃
Deleteबहुत बढ़िया
ReplyDeleteजितनी बार पढ़ती हूँ
इस अहसासको जीती हूँ..
मतलब लिखना सार्थक रहा.. 🙏
Delete