Saturday, April 11, 2020

भारतवर्ष की मोनालिसा

भारत की मोनालिसा - दीदारगंज यक्षिणी



यक्षी विग्रह
मूर्तिकला या पाषाणकला का प्रसार मौर्य काल-खंड से शुरू हुआ, इसे हम पाषाण शिल्प का उद्भव काल कह सकते हैं।
पाषाण शिल्प के प्रारंभ और विकास दोनों में हम बिहार के अवदान को रेखांकित कर सकते हैं। बिहार में इस शिल्प के ऐतिहासिक प्रमाण ईशा पूर्व तीसरी शताब्दी से मिलते हैं। वस्तुतः यह जंगली सभ्यता से नागरिक सभ्यता में रूपांतरण का काल था जब मनुष्य जंगल या अरण्य सभ्यता से अलग ही हुआ था।

पहले बिहार में सारण और चिराद मैं इस बदलाव के प्रमाण मिलते हैं, पत्थर का कटोरा, दरवाजा, स्तंभ आदि उपयोगितावाद के स्वरूप है। जिससे पत्थर में उत्कीर्णता का सिलसिला चला फिर पत्थर से देवी देवताओं की मूर्तियां बनी, मूल में मूर्तिकला का शिल्पात्मक विकास भी पाषाण शिल्प का विकास प्रस्थान और इतिहास है। यह इतिहास बिहार में शुरू होता है, मौर्य काल से कुषाण, शुंग, पाल काल से होता आज भी इसकी धारा बिहार में प्रतिस्थापित है।

इस काल के अन्य साक्ष्य लोहानीपुर,पटना से प्राप्त कबंध (टोरैसो) है। इसी तरह मसाड़ से प्राप्त सिंह-मस्तक, वैशाली से प्राप्त वृषभ शीर्ष, भी इस कला का उल्लेखनीय प्रतिदान है। इन सभी की विशेषता है कलाकृतियों के पृष्ठ भाग का जुड़ा रहना है। अशोक स्तंभ और यक्ष-यक्षी प्रतिमाएं शुरुआती मौर्यकाल काल की देन है।

चमक मौर्यकालीन प्रस्तर कलाकृतियों की विशिष्टता थी और इसी दौरान पाटलिपुत्र यक्ष-यक्षी प्रतिमाओं के केंद्र के रूप में विकसित हुआ था। सम्राट अशोक की शिलाओ पर खुदे हुए अभिलेख, सिंह, वृषभ और अश्वों की मूर्तियों से हमें मौर्यकालीन मूर्तिकारों की दक्षता का परिचय मिलता है।
 अशोक कालीन इन प्रतिमाओं की चिकनाई और चमक आज भी बरकरार है। इस काल के पाषाण शिल्प की सबसे बड़ी देन है विश्व की एकमात्र प्रस्तर सौंदर्य सृष्टि चामर धारी यक्षिणी प्रतिमा..

 यह प्रतिमा चंहुमुख दर्शनीय है और इसमें दर्पण की तरह चमक है। यह प्रतिमा अपने अतुलनीय सुंदर के साथ आदर्श नारी के प्रतीक के रूप में वैश्विक अपील के कारण विश्व प्रसिद्ध है, साथ ही भारतीय कला की एक अनुपम कृति के रूप में स्थापित है।

दीदारगंज यक्षी को आरती कलाकार उत्कृष्ट तथा अनुपम उदाहरण माना जाता है इसका निर्माण २०००-३००० वर्ष पूर्व सम्राट अशोक के समय हुआ था बादामी रंग के चमकदार बलुआ पत्थर से बनी यह अलौकिक मूर्ति 1917 में पटना के गंगा घाट पर दीदारगंज में नामक स्थान पर नदी के कछारी कीचड़ में दबी हुई अवस्था में मिली थी।

स्थानीय ग्रामीण मूर्ति के निचले आधार के पत्थर पर अपने कपड़े धोते रहे थे, कपड़े धोने के क्रम में 1 दिन संयोगवश एक सांप को रेंगते हुए उस पत्थर के नीचे जाकर छिपते हुए देख लिया। मौलवी गुलाम रसूल नामक व्यक्ति ने छिपे हुए सांप को खोजने के क्रम में इस मूर्ति का पता लगाया था।

यक्षी की यह मूर्ति संस्कृत और पाली शास्त्रों तथा पौराणिक कथाओं में वर्णित स्त्री सुंदरता के उच्चतम प्रतिमानों और अनुपात के गणतीय मानकों को सर्वथा पूर्ण करती है। मूर्ति का चेहरा अत्यंत सौंदर्ययुक्त सौम्यता से तराशा गया है। आभुषणों से सर्वांग सुसज्जित इस प्रतिमा के गले,वक्ष और कमर के सुकोमल त्वचा वलयों को यथार्थ सुंदरता से प्रर्दशित किया गया है। किसी देवराट् के सम्मान में हल्की सी झुकाव लिए खड़ी इस मूर्ति को दांए कंधे पर हाथ से चंवर रखी मुद्रा में गढ़ा गया है।

इस अद्भुत लावण्ययुक्त प्रतिमा का निर्माण करते हुए निश्चित ही शिल्पी ने देवलोक की अप्सराओं के रूप श्रृंगार को अपने ध्यान में अंकित कर रखा होगा, और कृति ऐसी मानो सचमुच ही कोई सर्वांग सुन्दरी यक्षी ही किसी क्रोधित ऋषि के श्राप से जड़वत प्रस्तर मूर्ति बन गई हो, जैसे अभी ही बोल उठेगी पुरूषोत्तम का स्पर्श पाकर..

रक्त महावर से रेखांकित चरणों में भारी असंख्य घूघंरूओं वाली रजत पैंजनी, बंग प्रदेश की बहुमूल्य अत्यंत महीन रेशमी कासायम्बरमण्डित मतवाले हाथी की सूंड़ सी सटकारी सम्पुष्ट जांघे, उन्नत नितम्भ और कटिवस्त्र बांधने का चिर परिचित भारत देश का हस्तलाघव।

 वृहद,स्थुल अंग-उपांग को बहुत ही गंभीर यत्न से धारण किए संपुर्ण वक्रता को प्रदर्शित करता क्षीण कटि प्रदेश पर  स्वर्णिम रज्जु-मेखला, और सुंदर वलयो से युक्त कामपुर्ण गहरी नाभि-प्रदेश।

पर्वतश्रृंग से सुडौल, कठोर, उन्मुख, अचल कुच यौवन-युगल पर निरन्तर घर्षित गजमुक्ता हार और आघात करता हुआ अंशुफलक तथा वक्षभार से श्रमित विनयावनत पुष्ट देहयेष्टी।

मासंल किंतु दृढ़ भुजदंडों में पहने हुए सुवर्ण कंकण तथा गजदंत निर्मित वलय, दाहिने भुजा के सुकोमल, नरम, गद्देदार फुले हुए पितातीरक्त चित्रित छोटे-छोटे हाथों में सुदूर देशों से आयातित मचलायम बालों वाला चंवर कंधे पर धारण किए‌।

 शंख की तरह सुडोल और सुदंर कण्ठ में स्वर्णतार-ग्रथित मणिमाल, कर्णफलक में संबद्ध मीनमुक्ता के दोहरे स्तर वाले मनोहारी कुंडल, लाक्षारस से सिक्त बिंबाफल के सामान अधरावली, शुकतुंड सी नासिका पर हरित वैदूर्य मणि युक्त नथ की कल्पना।

कमान सी तनी भौंहे, पुंडरिक से ज्योर्तिमय नयन, जिनकी बांकी तीक्ष्ण धार कान तक जाती हो, शीश पर मागध उष्णीश तथा मुक्ता मालाओं से बहुविधि सुसज्जित केश कुन्तावली इस जगत प्रसिद्ध भुवनमन मोहिनी के रूप वर्णन जितना भी कहा जाए कम है।

इतिहासकारों ने इस प्रतिमा के चेहरे पर स्मित मुस्कान को विश्व प्रसिद्ध मोनालिसा की मुस्कान से भी बेहतर माना है। उनका कहना है कि मोनालिसा की मुस्कान और गुढ़ तथा रहस्यात्मक है और यह देखने वाले पर व्यंग करती प्रतीत होती है। जबकि दीदारगंज की यक्षी प्रतिमा की मुस्कान संतुलित और मोहक है, यह प्रतिमा रूप की अभिव्यक्ति आकृति की पूर्णता और कला की सूक्ष्मता का अभिनव संगम है।

इस प्रतिमा ने सन् १९८५ में अमेरिका में आयोजित भारत महोत्सव सहित कई अंतरराष्ट्रीय प्रदर्शनियों में भारतीय कला के उज्ज्वल कीर्ति के सूर्य का प्रतिनिधित्व कर अनेक सम्मान अर्जित किया है। यह अभी तक मिली प्राचीन कलाकृतियों में सबसे अधिक सुंदर और महत्त्वपूर्ण कलाकृति है जो इस समय पाटलिपुत्र के बिहार संग्राहालय के अंत:पुर में साअधिकार गर्वित भाव से स्थापित है, तथा सभी रसिक दर्शनार्थियों को सहज ही मोहित कर अपने सम्मोहन के पास में बांध लेती है।

इति शुभम्
अनुराग चतुर्वेदी








3 comments:

  1. अनुज अनुराग!! पढ़ तो लिया हूं एक एक शब्द पर क्या कहा जाए इस पर निःशब्द हूं।
    इतने सारे विशेषण एक जगह इकट्ठा कर दिए कि कुछ लिखने के लिए शब्द ही नहीं है मेरे पास।

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  2. आपका पढ़ना ही मेरे लिए प्रोत्साहन के शब्द से कही ज्यादा है महादेव..

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  3. वाह,कला का बेजोड़ नमूना है ये मूर्ति। इसके बारे में जानकारी देने के लिए अभिनन्दन��

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