बरसातों में नंदनकानन की ओर... भाग ~ ३
23/08/2018
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आज की सुबह भी भूचालों वाली थी, कल देर रात तक झमाझम बारिश में आपाधापी करना और फिर 100/100 के हाथों अपने सारे घोड़े आधे दामों पर ही नीलाम कर बेसुध से सोये थे। ज्योति जी का अपना बैग सजाते हुए कह रही थी धुप निकल आई है और किन आलसियों से राब्ता पड़ा है। हमें बस उनके योगा क्लास से राहत थी, तो सब फटाफट उठ बैठे.. मृगांक टाॅयलेट गया और थोड़ी देर में लगभग टप्पे खाता हुआ बाहर आया था- पानी में करंट है.. पानी में करंट है..
सबने पानी को हाथ लगाकर देखा और सबने ही माना था की पानी में करंट है.. पर बिजली वाला नहीं बर्फों वाला। सबकी बारी आनी थी.. तब तक बाॅलकनी से नजारा लिया जाए.. क्या सुदंर दृश्य था मेरी खुशी से चीख निकल गई।
हमारी बाॅलकनी गुरूद्वारे वाली सड़क के बराबर ही थी, और पीछे एक काले पत्थरों वाला पहाड़ हमारे सिर पर खड़ा था। दूर किसी नुकिली बर्फिली चोटी के पीछे से धुप आने वाली थी। उसी ओर कहीं गोविंदघाट गुरूद्वारा भी था, भजनों की धुन सुनाई दे रही थी। अलकनंदा और लक्ष्मणगंगा(पुष्पावती) का संगम हमारे कमरे के ठीक सामने था, गुरूद्वारे के ठीक सामने ही वो अलकनंदा को पार कर पुलना जाने वाला पुल भी था। जिसपर लगातार मैक्स टैक्सी उपर नीचे आ जा रही थी। कल रात जब हमने इस रास्ते को देखा था तो बड़ा आश्चर्य हुआ था की जब सारे रास्ते बंद है तो फिर उपर पहाड़ पर गाड़ियाँ कैसे चल रही है। फिर हमने अपने बैकपैक को अरेंज किया और केवल बहुत आवश्यकता वाले सामान ही लेकर जाना तय किया बाकी सामान होटल वाले के पास ही रख देना था। ज्योति जी को दो बैग लेकर जाता देख मैं तकरीबन उन पर चिल्ला ही पड़ा था इत्ता वजन लेकर तो कोई पोर्टर जाता होगा। उनका कहना था की चूँकि वो औरत है तो उनका सामान ज्यादा ही होना है और वो अगले चार दिन हमारी तरह आलसी मगरमच्छों की तरह नहीं रह सकती,उसमें तमाम ऊलजलूल चीजें थी अब मैं बिल्कुल चुप था। जैसे-तैसे हम गुरूद्वारे के लिए निकले आज का ब्रैकफास्ट वहीं करना था। हमारा जुलूस शान से गोविंदघाट के सड़कों पर गुजरा था। चार अलग-2 टायरो वाली गाड़ी को लोगों ने मुड़ मुड़ कर देखा था। पार्किंग के पास ही एक मजेदार बैनर ने हमारे कदम रोक लिए थे वो नीती घाटी में स्थित अमरनाथ की तरह खुदबखुद बनने वाले शिवलिंग की तरह का कोई गुफा का बैनर था जिसमें कोई समिति सबको आमंत्रित कर रही थी। नीती घाटी तिब्बत से लगा सीमान्त इलाका है इसलिए वहाँ जाने के लिए तमाम पापड़ बेलने होते है इसलिए ज्यादा लोग उधर नहीं जाते यहीं रूक कर हमने सहारे वाली बेंत की छडियाँ 20 रू किराए पर ली थी। शायद ही कोई कभी कोई दुकान पर छडियाँ वापस करता होगा। अधिकतर या तो खेलों और ग्रुपो की तलवारबाजी में टूट जाती है या फिर कहीं छूट जाती है, जहाँ से ये फिर दुकानों पर आ जाती है और ये चक्का चलता ही रहता है।
कुछ संकरी दुकानों वाली गलियों से गुजरते हुए हम अचानक गुरूद्वारे के सामने खड़े थे। सभी दुकानों पर वहीं चीजें मिल यही थी जो आमतौर पर किसी धार्मिक जगहों पर मिला करती है। साथ ही वो रेनकोट, छडियाँ आदी जरूरी सामान भी दे रहे थे। गुरूद्वारा गोविंदघाट अलकनंदा नदी के किनारे पर ही बना है, जिसके ठीक सामने रूकने वाली इमारत है जहाँ एक कमरा लेने के लिए आपको कम से कम 1100 की रसीद कटानी ही होगी। गुरूद्वारे में दर्शन और प्रार्थना के बाद लंगर हाॅल में आए, चाय का एक पुरा गिलास पीने के बाद पंगत में बैठे और जैसे ही पहला निवाला मुँह में डाला कुछ याद आया और कलेजा धक्क.. से रह गया।
मेरे जेब में मेरा पर्स था ही नहीं.. पिक्चर उल्टी चलाने पर याद आया की कल 100/100 के झटकों से बचने के लिए मैंने अपना पर्स होटल के गद्दे के नीचे रख दिया था। मेरे चेहरे पर उड़ रही हवाइयाँ को सबने पढ़ लिया था, किसी तरह एक परसादा जी खाने के बाद मैं वापस होटल की ओर भागा था। जो उपर सड़क पर था, लगभग दौड़ते-भागते-हांफते हुए होटल पहुँच कर दुबारा चाभी ली। पर्स अपनी जगह पर सुरक्षित था अभी कमरे की सफाई भी नहीं हुई थी। पर्स लेकर वापस गुरूद्वारे की ओर भागा.. हांफते-2 पहुँचा और लंगर रिसेप्शन के फर्श पर ही परस गया। थोड़ी देर साँस लेने के बाद सबको खुशखबर दी पर बदले में उन्होंने मुझे जो खबर दी वह दुबारा होश उड़ाने वाली थी। दरअसल गुरूद्वारे का आगंन एक बड़ा मिलन स्थल होता है जहाँ वापस आने वाले और जाने वाले मिलते है। आने वाले अपनी दिल दहलाने वाली कहानियाँ नमक मिर्च लगाकर बताते है और यात्रा शुरू करने वाले दिल थाम कर सुनते है।
यहाँ सामानों की लेनदेन भी खूब चलती है, आपको आश्चर्य नहीं होना चाहिए जब कोई वापस आता यात्री आपके हाथों में कोई टाॅफी, ड्राईफ्रूट ग्लूकोज का पैकेट या अपनी छड़ी दे दे, सभी एक दुसरे का सहयोग करना चाहते है। जब मैं अपने पर्स के लिए भागदौड़ कर रहा था तब बाकी तीनों लोग आस पास लोगों से बात कर ट्रैक की जानकारियाँ इक्कठा कर रहे थे और लगभग सभी ने मृगांक के भारी भरकम होने के नुकसान गिनाए थे, तब वो गुरूद्वारा के रिसेप्शन पर पुछताछ करने गया था, जहाँ उसे खराब मौसम में ट्रैक ना करने की सलाह मिली थी। मेरे वापस आते ही यह झंझट मेरे गले पड़नी थी की ट्रैक पर जाए या नहीं.. मैं किलोमीटर भर की चढ़ाई उतराई वाली दौड़ पुरी कर फायर हुआ कारतुस बना हाँफ रहा था। मैंने उसे घोड़े और हेलीकाॅप्टर का लालच दिया था, पर हिमालय में पहली बार आने और ट्रैक के नाम पर लोगों के भड़काने से डर कर पीछे हट रहा था। काफी देर तक जिरह चलती रही थी कुछ वापसी के यात्रियों ने भी उसे समझाया था पर कोई फायदा नहीं संतोष भी उसके साथ ही रहना चाहता था फिर दुबारा बैकपैक अरेंज किए गये, अब हम चारपहिया गाड़ी से दोपहिया बन चुके थे।
मैं और ज्योति जी तो ट्रैक कंपलीट करने के लिए कब से तैयार थे, आखिरकार मृगांक और संतोष को रास्ते खुलने पर बद्रीनाथ जाने की हिदायत दी और चार दिन बाद वहीं मिलने के वादे के साथ गमगीन विदाई ली। गुरूद्वारे के ठीक पीछे टैक्सी स्टैंड था, जहाँ से 3 km दूर पुलना तक जाया जा सकता है। वहाँ से आगे 13km ट्रैक कर ही घांघरिया पहुँचना है। आठ यात्री होने पर ही एक टैक्सी निकलती है, पास ही उत्तराखंड पर्यटन विकास निगम की तरफ से सभी यात्रियों का हेमकुंड यात्रा के दिए रजिस्ट्रेशन हो रहा था। रजिस्ट्रेशन रीसीट मिलने के बाद हम गाड़ी में थे अब हमारे साथ एक स्काटलैंड के सिख तीर्थयात्री भी आ गये। देर होता देख हमने पुरी टैक्सी बुक कर जब चलने लगे तो अचानक छः और यात्रियों का काफिला भी हमारे साथ आ गया। अब गाड़ी पुरी भर चुकी तो पुल पर एक बार फिर इंट्री कर अब हम पुलना की ओर चढ़ाई पर थे। गाड़ी मोड़ दर मोड़ और ऊँचाइयों पर चढ़ती जा रही थी। यह वहीं रास्ता था जो हमें कल नीचे से नजर आ रहा था, दूर नीचे गुरूद्वारा, गोविंदघाट बाजार और हैलीपैड़ नजर आ रहा था। 20 मिनट की यात्रा के बाद हम एक ढेरों गाड़ियों से भरी एक पार्किंग में थे, यह पुलना था। जहाँ से आप घांघरिया तक के रास्ते को पैदल घोड़े या पालकी से जा सकते है। पुरा रास्ता पत्थरों से बढ़िया बना हुआ है, कहीं-2 सीढ़ियाँ भी है तो कही चढ़ाई-उतराई भी। कुछ मिला कर आप धीरे-धीरे ऊँचाइयों की ओर ही जाते है। जहाँ घाटी खुलती है और लक्ष्मणगंगा-अलकनंदा का संगम है वहाँ गोविंदघाट गुरूद्वारा है, फिर घाटी में 3km चढ़ाई के बाद पुलना जगह है, पुलना में कोई खास बसावट तो नहीं बस दो तीन दुकानें या ढाबें ही है यह पुरी जगह बस टैक्सी पार्किंग, घोड़ो और उनकी लीद से पटी पड़ी है। यहाँ हर वक्त अफरातफरी ही रहती है, कुछ आ रहे है कुछ जा रहे है। गाड़ियों की आवाजें, घोड़े वालों की आवाजें, पालकी वालों की आवाजें, घोड़ो की हिनहिन्नाहट सबकुछ..
यदी आप अपने गाड़ी से है तो उसे नीचे गुरूद्वारे पर ही पार्क करें यहाँ बस टैक्सी वालों की ही पार्किंग है, पर लोगों ने अपने घरों की छतों पर बाइक की पार्किंग बना रखी है। हम पुलना से निकल भागना चाहते है, पुलना से आधे किलोमीटर तक बस घोड़े ही घोड़े और लीद की बदबू... सभी घोड़े लेकर जाने का आग्रह करते रहते है। हमने तो पैदल ही जाना है तो तेजी से चल पड़ते है इस।जगह से। पुलना हम करीब 10 बजे ही पहुँच सके थे, तकरीबन सभी लोग सुबह जल्दी ही ट्रैक शुरू करते है। हमको देरी हो चुकी थी ज्यादातर लोग वापसी वाले ही मिल रहे थे। सबके चेहरे पुलना आने की खुशी में चमक रहे थे। हम बाँए हाथ की तरह के पहाड़ पर बने रास्तों पर चल रहे थे। हमारे दाँए तरह घाटी में लक्ष्मणगंगा गरजती उफनती बह रही थी और उसके उपर थे घने जंगलों से भरे खड़े ढालों वाले पहाड़ जिनपर उस समय बारिश के कारण सैकड़ों झरने चल रहे थे। हम भी पेड़ों की छांव वाले रास्ते पर ही थे पर इस तरफ के पहाड़ पर नाममात्र का पानी कहीं-2 मिलता है। बाँए तरफ चलते-2 हमें भ्यूंडार तक जाना था। रास्ता चढ़ाई-उतराई वाला था हम कछुए की गति से एक बराबर चाल से चल रहे थे। चढ़ाई आने पर सांस फूलने लगती और उतराई आने पर चौकडियाँ मारते.. ऐसे गिरते पड़ते यात्रापथ पर लगातार चलते रहे, कुछ दूर तक तकरीबन हर मोड़ पर कोई एक घोड़े वाला लालच देने के लिए मौजुद था। ज्योति जी मुझसे भी धीरे चलते है तो वो बार-2 ओझल हो जा रही थी, मैं उनका मोड़ पर इंतजार करता फिर दिखाई देने पर आगे बढ़ जाता। मेरे लाख विरोध के बावजूद दो बैग लेकर चल रहीं थी वो..
पुरे रास्ते बहुत से सफाईकर्मी लगाए गये है, जो घोड़ों की लीद को रास्ते से हटाते रहते है, पर इनका सबसे पसंदीदा काम है यात्रियों से सफाई के नाम पर भीख मांगना.. इस पुरे यात्रा फर आपसे शायद सैकड़ों बार पैसे मांगे जा सकते है कुछ बार तो बेशर्मी की हद तक.. इनके पहाड़ी होने पर मुझे शक हो रहा था। शायद यह किसी ठेकेदार द्वारा तराई इलाकों से थोक भाव में लाए गये मजदूर है जिनकी बस वेशभूषा पहाड़ी है।
हमें चलते हुए डेढ़ घंटा हो चुका था, बीच में हल्की बारिश भी मिल गई तो हमने अपने रेनकोट और बैगकवर लगा लिए।
ज्योति जी ने अपनी छड़ी भी मुझे दे दी तो अब मैं पत्थरीलें रास्तों पर दोनों हाथों में छड़ी लेकर स्कीईंग करते हुए चल रहा था। मैंने कहीं पढ़ा था की पुरे रास्ते बस भ्यूंडार में ही कुछ दुकानें है। थोड़ी दूर पर घाटी थोड़ी खुलती लगी और वहाँ चाय नास्ते की अनेक दुकानें बनी हुई थी। अचानक हम खुश हो गये की भ्यूंडार पहुँच गये पर इतनी जल्दी कैसे..?? भ्यूंडार पुलना से 8km दूर है और फिर वहाँ से घांघरिया (गोविंदधाम) लगभग 4km दूर है। पुछने पर पता चला की अभी हम 3 km ही चल पाए थे और यह जगह जंगलचट्टी है, एक और पड़ाव बस.. हम फिर मुँह लटकाए अपनी कछुआ चाल से आगे चल पड़े थे... क्रमशः
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इति शुभम्
अनुराग चतुर्वेदी⚘
23/08/2018
इस यात्रा कथा को आरंभ से पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करेें।
आज की सुबह भी भूचालों वाली थी, कल देर रात तक झमाझम बारिश में आपाधापी करना और फिर 100/100 के हाथों अपने सारे घोड़े आधे दामों पर ही नीलाम कर बेसुध से सोये थे। ज्योति जी का अपना बैग सजाते हुए कह रही थी धुप निकल आई है और किन आलसियों से राब्ता पड़ा है। हमें बस उनके योगा क्लास से राहत थी, तो सब फटाफट उठ बैठे.. मृगांक टाॅयलेट गया और थोड़ी देर में लगभग टप्पे खाता हुआ बाहर आया था- पानी में करंट है.. पानी में करंट है..
सबने पानी को हाथ लगाकर देखा और सबने ही माना था की पानी में करंट है.. पर बिजली वाला नहीं बर्फों वाला। सबकी बारी आनी थी.. तब तक बाॅलकनी से नजारा लिया जाए.. क्या सुदंर दृश्य था मेरी खुशी से चीख निकल गई।
हमारी बाॅलकनी गुरूद्वारे वाली सड़क के बराबर ही थी, और पीछे एक काले पत्थरों वाला पहाड़ हमारे सिर पर खड़ा था। दूर किसी नुकिली बर्फिली चोटी के पीछे से धुप आने वाली थी। उसी ओर कहीं गोविंदघाट गुरूद्वारा भी था, भजनों की धुन सुनाई दे रही थी। अलकनंदा और लक्ष्मणगंगा(पुष्पावती) का संगम हमारे कमरे के ठीक सामने था, गुरूद्वारे के ठीक सामने ही वो अलकनंदा को पार कर पुलना जाने वाला पुल भी था। जिसपर लगातार मैक्स टैक्सी उपर नीचे आ जा रही थी। कल रात जब हमने इस रास्ते को देखा था तो बड़ा आश्चर्य हुआ था की जब सारे रास्ते बंद है तो फिर उपर पहाड़ पर गाड़ियाँ कैसे चल रही है। फिर हमने अपने बैकपैक को अरेंज किया और केवल बहुत आवश्यकता वाले सामान ही लेकर जाना तय किया बाकी सामान होटल वाले के पास ही रख देना था। ज्योति जी को दो बैग लेकर जाता देख मैं तकरीबन उन पर चिल्ला ही पड़ा था इत्ता वजन लेकर तो कोई पोर्टर जाता होगा। उनका कहना था की चूँकि वो औरत है तो उनका सामान ज्यादा ही होना है और वो अगले चार दिन हमारी तरह आलसी मगरमच्छों की तरह नहीं रह सकती,उसमें तमाम ऊलजलूल चीजें थी अब मैं बिल्कुल चुप था। जैसे-तैसे हम गुरूद्वारे के लिए निकले आज का ब्रैकफास्ट वहीं करना था। हमारा जुलूस शान से गोविंदघाट के सड़कों पर गुजरा था। चार अलग-2 टायरो वाली गाड़ी को लोगों ने मुड़ मुड़ कर देखा था। पार्किंग के पास ही एक मजेदार बैनर ने हमारे कदम रोक लिए थे वो नीती घाटी में स्थित अमरनाथ की तरह खुदबखुद बनने वाले शिवलिंग की तरह का कोई गुफा का बैनर था जिसमें कोई समिति सबको आमंत्रित कर रही थी। नीती घाटी तिब्बत से लगा सीमान्त इलाका है इसलिए वहाँ जाने के लिए तमाम पापड़ बेलने होते है इसलिए ज्यादा लोग उधर नहीं जाते यहीं रूक कर हमने सहारे वाली बेंत की छडियाँ 20 रू किराए पर ली थी। शायद ही कोई कभी कोई दुकान पर छडियाँ वापस करता होगा। अधिकतर या तो खेलों और ग्रुपो की तलवारबाजी में टूट जाती है या फिर कहीं छूट जाती है, जहाँ से ये फिर दुकानों पर आ जाती है और ये चक्का चलता ही रहता है।
कुछ संकरी दुकानों वाली गलियों से गुजरते हुए हम अचानक गुरूद्वारे के सामने खड़े थे। सभी दुकानों पर वहीं चीजें मिल यही थी जो आमतौर पर किसी धार्मिक जगहों पर मिला करती है। साथ ही वो रेनकोट, छडियाँ आदी जरूरी सामान भी दे रहे थे। गुरूद्वारा गोविंदघाट अलकनंदा नदी के किनारे पर ही बना है, जिसके ठीक सामने रूकने वाली इमारत है जहाँ एक कमरा लेने के लिए आपको कम से कम 1100 की रसीद कटानी ही होगी। गुरूद्वारे में दर्शन और प्रार्थना के बाद लंगर हाॅल में आए, चाय का एक पुरा गिलास पीने के बाद पंगत में बैठे और जैसे ही पहला निवाला मुँह में डाला कुछ याद आया और कलेजा धक्क.. से रह गया।
मेरे जेब में मेरा पर्स था ही नहीं.. पिक्चर उल्टी चलाने पर याद आया की कल 100/100 के झटकों से बचने के लिए मैंने अपना पर्स होटल के गद्दे के नीचे रख दिया था। मेरे चेहरे पर उड़ रही हवाइयाँ को सबने पढ़ लिया था, किसी तरह एक परसादा जी खाने के बाद मैं वापस होटल की ओर भागा था। जो उपर सड़क पर था, लगभग दौड़ते-भागते-हांफते हुए होटल पहुँच कर दुबारा चाभी ली। पर्स अपनी जगह पर सुरक्षित था अभी कमरे की सफाई भी नहीं हुई थी। पर्स लेकर वापस गुरूद्वारे की ओर भागा.. हांफते-2 पहुँचा और लंगर रिसेप्शन के फर्श पर ही परस गया। थोड़ी देर साँस लेने के बाद सबको खुशखबर दी पर बदले में उन्होंने मुझे जो खबर दी वह दुबारा होश उड़ाने वाली थी। दरअसल गुरूद्वारे का आगंन एक बड़ा मिलन स्थल होता है जहाँ वापस आने वाले और जाने वाले मिलते है। आने वाले अपनी दिल दहलाने वाली कहानियाँ नमक मिर्च लगाकर बताते है और यात्रा शुरू करने वाले दिल थाम कर सुनते है।
यहाँ सामानों की लेनदेन भी खूब चलती है, आपको आश्चर्य नहीं होना चाहिए जब कोई वापस आता यात्री आपके हाथों में कोई टाॅफी, ड्राईफ्रूट ग्लूकोज का पैकेट या अपनी छड़ी दे दे, सभी एक दुसरे का सहयोग करना चाहते है। जब मैं अपने पर्स के लिए भागदौड़ कर रहा था तब बाकी तीनों लोग आस पास लोगों से बात कर ट्रैक की जानकारियाँ इक्कठा कर रहे थे और लगभग सभी ने मृगांक के भारी भरकम होने के नुकसान गिनाए थे, तब वो गुरूद्वारा के रिसेप्शन पर पुछताछ करने गया था, जहाँ उसे खराब मौसम में ट्रैक ना करने की सलाह मिली थी। मेरे वापस आते ही यह झंझट मेरे गले पड़नी थी की ट्रैक पर जाए या नहीं.. मैं किलोमीटर भर की चढ़ाई उतराई वाली दौड़ पुरी कर फायर हुआ कारतुस बना हाँफ रहा था। मैंने उसे घोड़े और हेलीकाॅप्टर का लालच दिया था, पर हिमालय में पहली बार आने और ट्रैक के नाम पर लोगों के भड़काने से डर कर पीछे हट रहा था। काफी देर तक जिरह चलती रही थी कुछ वापसी के यात्रियों ने भी उसे समझाया था पर कोई फायदा नहीं संतोष भी उसके साथ ही रहना चाहता था फिर दुबारा बैकपैक अरेंज किए गये, अब हम चारपहिया गाड़ी से दोपहिया बन चुके थे।
मैं और ज्योति जी तो ट्रैक कंपलीट करने के लिए कब से तैयार थे, आखिरकार मृगांक और संतोष को रास्ते खुलने पर बद्रीनाथ जाने की हिदायत दी और चार दिन बाद वहीं मिलने के वादे के साथ गमगीन विदाई ली। गुरूद्वारे के ठीक पीछे टैक्सी स्टैंड था, जहाँ से 3 km दूर पुलना तक जाया जा सकता है। वहाँ से आगे 13km ट्रैक कर ही घांघरिया पहुँचना है। आठ यात्री होने पर ही एक टैक्सी निकलती है, पास ही उत्तराखंड पर्यटन विकास निगम की तरफ से सभी यात्रियों का हेमकुंड यात्रा के दिए रजिस्ट्रेशन हो रहा था। रजिस्ट्रेशन रीसीट मिलने के बाद हम गाड़ी में थे अब हमारे साथ एक स्काटलैंड के सिख तीर्थयात्री भी आ गये। देर होता देख हमने पुरी टैक्सी बुक कर जब चलने लगे तो अचानक छः और यात्रियों का काफिला भी हमारे साथ आ गया। अब गाड़ी पुरी भर चुकी तो पुल पर एक बार फिर इंट्री कर अब हम पुलना की ओर चढ़ाई पर थे। गाड़ी मोड़ दर मोड़ और ऊँचाइयों पर चढ़ती जा रही थी। यह वहीं रास्ता था जो हमें कल नीचे से नजर आ रहा था, दूर नीचे गुरूद्वारा, गोविंदघाट बाजार और हैलीपैड़ नजर आ रहा था। 20 मिनट की यात्रा के बाद हम एक ढेरों गाड़ियों से भरी एक पार्किंग में थे, यह पुलना था। जहाँ से आप घांघरिया तक के रास्ते को पैदल घोड़े या पालकी से जा सकते है। पुरा रास्ता पत्थरों से बढ़िया बना हुआ है, कहीं-2 सीढ़ियाँ भी है तो कही चढ़ाई-उतराई भी। कुछ मिला कर आप धीरे-धीरे ऊँचाइयों की ओर ही जाते है। जहाँ घाटी खुलती है और लक्ष्मणगंगा-अलकनंदा का संगम है वहाँ गोविंदघाट गुरूद्वारा है, फिर घाटी में 3km चढ़ाई के बाद पुलना जगह है, पुलना में कोई खास बसावट तो नहीं बस दो तीन दुकानें या ढाबें ही है यह पुरी जगह बस टैक्सी पार्किंग, घोड़ो और उनकी लीद से पटी पड़ी है। यहाँ हर वक्त अफरातफरी ही रहती है, कुछ आ रहे है कुछ जा रहे है। गाड़ियों की आवाजें, घोड़े वालों की आवाजें, पालकी वालों की आवाजें, घोड़ो की हिनहिन्नाहट सबकुछ..
यदी आप अपने गाड़ी से है तो उसे नीचे गुरूद्वारे पर ही पार्क करें यहाँ बस टैक्सी वालों की ही पार्किंग है, पर लोगों ने अपने घरों की छतों पर बाइक की पार्किंग बना रखी है। हम पुलना से निकल भागना चाहते है, पुलना से आधे किलोमीटर तक बस घोड़े ही घोड़े और लीद की बदबू... सभी घोड़े लेकर जाने का आग्रह करते रहते है। हमने तो पैदल ही जाना है तो तेजी से चल पड़ते है इस।जगह से। पुलना हम करीब 10 बजे ही पहुँच सके थे, तकरीबन सभी लोग सुबह जल्दी ही ट्रैक शुरू करते है। हमको देरी हो चुकी थी ज्यादातर लोग वापसी वाले ही मिल रहे थे। सबके चेहरे पुलना आने की खुशी में चमक रहे थे। हम बाँए हाथ की तरह के पहाड़ पर बने रास्तों पर चल रहे थे। हमारे दाँए तरह घाटी में लक्ष्मणगंगा गरजती उफनती बह रही थी और उसके उपर थे घने जंगलों से भरे खड़े ढालों वाले पहाड़ जिनपर उस समय बारिश के कारण सैकड़ों झरने चल रहे थे। हम भी पेड़ों की छांव वाले रास्ते पर ही थे पर इस तरफ के पहाड़ पर नाममात्र का पानी कहीं-2 मिलता है। बाँए तरफ चलते-2 हमें भ्यूंडार तक जाना था। रास्ता चढ़ाई-उतराई वाला था हम कछुए की गति से एक बराबर चाल से चल रहे थे। चढ़ाई आने पर सांस फूलने लगती और उतराई आने पर चौकडियाँ मारते.. ऐसे गिरते पड़ते यात्रापथ पर लगातार चलते रहे, कुछ दूर तक तकरीबन हर मोड़ पर कोई एक घोड़े वाला लालच देने के लिए मौजुद था। ज्योति जी मुझसे भी धीरे चलते है तो वो बार-2 ओझल हो जा रही थी, मैं उनका मोड़ पर इंतजार करता फिर दिखाई देने पर आगे बढ़ जाता। मेरे लाख विरोध के बावजूद दो बैग लेकर चल रहीं थी वो..
पुरे रास्ते बहुत से सफाईकर्मी लगाए गये है, जो घोड़ों की लीद को रास्ते से हटाते रहते है, पर इनका सबसे पसंदीदा काम है यात्रियों से सफाई के नाम पर भीख मांगना.. इस पुरे यात्रा फर आपसे शायद सैकड़ों बार पैसे मांगे जा सकते है कुछ बार तो बेशर्मी की हद तक.. इनके पहाड़ी होने पर मुझे शक हो रहा था। शायद यह किसी ठेकेदार द्वारा तराई इलाकों से थोक भाव में लाए गये मजदूर है जिनकी बस वेशभूषा पहाड़ी है।
हमें चलते हुए डेढ़ घंटा हो चुका था, बीच में हल्की बारिश भी मिल गई तो हमने अपने रेनकोट और बैगकवर लगा लिए।
ज्योति जी ने अपनी छड़ी भी मुझे दे दी तो अब मैं पत्थरीलें रास्तों पर दोनों हाथों में छड़ी लेकर स्कीईंग करते हुए चल रहा था। मैंने कहीं पढ़ा था की पुरे रास्ते बस भ्यूंडार में ही कुछ दुकानें है। थोड़ी दूर पर घाटी थोड़ी खुलती लगी और वहाँ चाय नास्ते की अनेक दुकानें बनी हुई थी। अचानक हम खुश हो गये की भ्यूंडार पहुँच गये पर इतनी जल्दी कैसे..?? भ्यूंडार पुलना से 8km दूर है और फिर वहाँ से घांघरिया (गोविंदधाम) लगभग 4km दूर है। पुछने पर पता चला की अभी हम 3 km ही चल पाए थे और यह जगह जंगलचट्टी है, एक और पड़ाव बस.. हम फिर मुँह लटकाए अपनी कछुआ चाल से आगे चल पड़े थे... क्रमशः
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इति शुभम्
अनुराग चतुर्वेदी⚘
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दूर किसी बर्फिली चोटी पर सुर्योदय गोविंदघाट होटल की बाॅलकनी से |
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मुख्य सड़क से गुरूद्वारा तक जाता रास्ता दूर गेट के पास था अपना ठिकाना |
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अलकनंदा और लक्ष्मणगंगा का संगम, भ्यूंडार घाटी का प्रवेश द्वार |
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गुरूद्वारा गोविंदघाट |
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घांघरिया ट्रैक के नजारे |
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ट्रैक घाटी नदी और जंगल |
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एक खूबसूरत फर्न |
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पहाड़ो की लाइफ लाइन घसेरी |
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मेहनतकश घसेरी औरतें और दूर चढ़ाई पर मैं |
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भैजी भारी तो है पर उठाना तो पड़ेगा ना! |
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आराम और इंतजार |
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कभी-2 जब साथ चले |
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जंगलचट्टी के ढाबो की मार्केटिंग |
मज़ेदार कहानी तो ट्रैक शुरू हो ही ही गया।
ReplyDeleteआखिरकार कुछ देर हमने गुरूद्वारे पर सीन खड़ा कर दिया था सभी आते जाते लोग हमको राय दे रहे थे और बहसों में उलझ रहे थे। बहुत दिलकश सा समां था पर आखिरकार हम चल पड़े आधे अधुरे ही सही...
Deleteजब मैं 2009 में गई थी तो गुरद्वारे के पास से ही पैदल चढ़ाई शुरू हो जाती थी हमने नीचे से ही घोड़े कर लिए थे ।अब तुम्हारे कहे अनुसार ऊपर टैक्सी जा रही हैं तो बहुत ही बढ़िया हैं।
ReplyDeleteगुरद्वारे में आपको 1100सो की रसीद फाड़ने के लिए किसने बोला । वहां सिर्फ पैसा जमाकर के कम्बल देते हैं आप कम्बल वापस करने पर अपना पैसा ले सकते है ।कमरों का कोई भाड़ा नही लगता ओर लंगर भी फ्री होता है।
बुआ जी, आजकल गुरूद्वारे से पुलना तक मस्त सड़क बन गई है। यदी रोक ना लगती तो घांघरिया तक सड़क बन ही जाती।
Deleteजी, बुआ मुझे भी थोड़ा झटका लगा था। पर जैसे आप बता रहे की 1100 सिक्योरिटी मनी है पर गुरूद्वारे में पैसे जमा कराने के बाद मांगना थोड़ा असहज भी तो करता है ना तभी.. हमने होटल चुना वैसे भी हम गुरूद्वारे तक पहुँच नहीं पाए थे बारिश से बस स्थानीय लोगों ने ऐसा बताया था।
लक्ष्य पर निकलते ही चार से दो हो जाना, कहानी में मोड़.....अनुराग जी पर्वतारोहण में मेरा मत है कि पहाड़ चढ़ने को मैं हाथी की सवारी के समान समझता हूँ कि जैसे दूर खड़े देखने पर हाथी और पहाड़ बेहद खूबसूरत जान पड़ते हैं, पर यदि किसी को कहा जाए कि इस अंजान हाथी की सवारी करोगे तो ज्यादातर लोगों को पैर पीछे हट जाएंगे परन्तु जिसने अपने कदम आगे बढ़ा दिये, वह अनन्य आनंद को प्राप्त होता है चाहे वो हाथी की सवारी हो या पहाड़ की।
ReplyDeleteहाँ,बिल्कुल सही कहा आपने.. कुछ लोगों को बस पहाड़ देखने में आकर्षक लगते है कुछ को पहाड़ जी लेने में। सारी गलती मेरी ही थी ना मैं पर्स भूल जाता ना ही उनको किसी से कुछ पुछना होता.. मैं तो जैस तैसे घसीटते लुढ़काते उन्हे ले ही जाता। उनकी पहली पहाड़ की यात्रा थी और वो घबरा गये। 😊😊
Deleteलक्ष्य पर निकलते ही चार से दो हो जाना, कहानी में मोड़.....अनुराग जी पर्वतारोहण में मेरा मत है कि पहाड़ चढ़ने को मैं हाथी की सवारी के समान समझता हूँ कि जैसे दूर खड़े देखने पर हाथी और पहाड़ बेहद खूबसूरत जान पड़ते हैं, पर यदि किसी को कहा जाए कि इस अंजान हाथी की सवारी करोगे तो ज्यादातर लोगों को पैर पीछे हट जाएंगे परन्तु जिसने अपने कदम आगे बढ़ा दिये, वह अनन्य आनंद को प्राप्त होता है चाहे वो हाथी की सवारी हो या पहाड़ की।
ReplyDelete😊😊🙏
Deleteअनुज, मानसून खुशकिस्मती से हमने भी देखा था ,महादेव के सौजन्य से। रास्ते और भी मनोहारी हो जाते हैं। और, पहाडों मे मानसून का स्वरुप ही वही है पर मीडिया को भी अपना चैनल चलना होता है। और जनता मै ज्योति जी से नहीं मिला था तब तक तुम्हारे लेख मे उन्हें महिला ही मान रहा था पर मिलने के बाद वो मेरे लिये कही से भी महिला नही रही वो तो लौहस्त्री है और बेहतर घुमक्कड़। और अनुज, जात ना पुछ घुमक्कडो़ की...। यात्रा के दौरान जानकारियों को जुटाने मे भी काफी जिज्ञासु बने रहना पड़ता है और यहाँ तो पल पल की खबर है, सबसे तेज.. । शानदार यात्रा का बेहतरीन विवरण ..
ReplyDeleteशुक्रिया भईया जी.. ज्योति जी को लेकर पहले मैं भी संशय में था फिर बाद में मैंने भी उनको महिला मानने से इंकार कर दिया। पहाड़ो की असली खुबसुरती तो मानसून और बर्फबारी में ही देखने मिलती है। 😊😎
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